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एकादशोऽधिकार
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में मिध्यादृष्टि जीब श्रेणी के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । सातों नरक भूमियों में सासादन सम्यग्दृष्टि, सभ्य मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का पृथक् पृथक् प्रमाण पत्योपम के श्रसंख्यातवें भाग है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, श्रसंयत सम्यग्दृष्टि श्रीर देशसंयत जीव पृथक् पृथक् पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। मनुष्यगति में मिध्यादृष्टि मनुष्य श्रेणी के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, और वह श्री का असंख्यातवां भाग प्रसंख्यात कोडाकोडो योजन प्रमाण है । सासादन गुणस्थानवर्ती जीव ५२ करोड़ प्रमाण हैं । तृतीय गुणस्थानवत समिध्यादृष्टि मनुष्य १०४ करोड़ प्रमारण, चतुर्थगुणस्थान में अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य ७०० करोड़ प्रमाण. पंचम मेंदेतुः १३ करो प्रमाण हैं । प्रमत्तगुणस्थान में प्रमत्तसंयंत मुनिराज उत्कृष्टत: ५६३६८२०६ हैं । श्रप्रमत्त गुरणस्थान में अप्रमत्तसंयत मुनिराज २९६६६१०३ हैं । श्रपूर्वकरणगुणस्थान में उपशम में लोगत योगी २६६ हैं और क्षपक श्रेणीगत क्षपक जीव ५६८ हैं । अनवृत्तिकरण गुणस्थान में उपशम ध गित जीव २६६ और क्षपक श्र े रिगत ५६८ हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुगस्थान में उपशम थे णि श्रारोहित मुनिराज २६६ हैं और क्षपक गित सुनिराज ५६८ हैं। उपशान्तकषाय गुणस्थान स्थित मुनिराजों का प्रभाग २६६ है तथा क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती योगियों का प्रमाण ५६८ है । सयोगगुणस्थान में सयोगिजिनों की सर्वोत्कृष्ट संख्या प्रमाण ८६८५०२ है । अयोगगुणस्थान स्थित प्रयोगिजिनों का प्रमाण उत्कृष्टत: ५६८ होता है । चतुर्थकाल में अढ़ाई द्वीप स्थित छठवें गुणस्थान से १४ वें गुणस्थान पर्यन्त के सर्व योगिराजों का योग करने पर सर्व तपोधनों का उत्कृष्ट प्रमाण ८६६६६६६७ अर्थात् तीन कम नौ करोड़ प्राप्त होता है ।
देवगति में ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों का प्रमाण प्रसंख्यात श्र ेणी स्वरूप प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण और भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात श्र ेणी स्वरूप अर्थात् घनांगुल के प्रथम वर्गमूल प्रमाण श्र ेणी हैं । सौधर्मेशान स्वर्गों में मिध्यादृष्टि देव श्रसंख्यात श्रेणी स्वरूप अर्थात् घनांगुल के तृतीय वर्गमूल प्रमाण श्रेणियाँ हैं । सानत्कुमारादि कल्पों में और कल्पातीत स्वर्गो में मिध्यादृष्टि देव श्रेणी के प्रसंख्यातवें भाग अर्थात् असंख्यात योजन करोड़ क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं उतनी संख्या प्रमाण हैं । ज्योतिष्कों, व्यन्तरवासी देवों, सौधर्मेशान स्वर्गो, सानत्कुमारादि कल्पों और कल्पातीत विमानों में सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवों का प्रत्येक स्थानों में पृथक् पृथक् प्रमाण पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है ।
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अब जीवों के प्रमाण का प्रत्ययहुत्व कहते हैं :-- चतुर्गतिषु संसारे मध्ये स्युः सकलाङ्गिनाम् । अत्यल्पा मानवाः श्रेण्यसंख्येयभागमात्रकाः ।।१७० ॥