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एकादशोऽविकारः
अब बादर अनन्तकाय जीवों का कथन करते हैं :
शैवालं पणकनाम केणुगः कवगस्तथा । पुष्पित्यादयः सन्त्यनन्तकायाश्च वादराः ॥७१॥
अस्य भाष्यमाह :
शैवालं जलगतहरितरूपं, पणक भूमिगत शैवाल, इष्टकादि प्रभवं च, केणुकः, पालम्बकछत्राणि शुक्लहरितनीलरूपाणि अपस्करोद्भवानि कबगः शृगालं वकछवाणि । पूष्पिका पाहारकनिकादि गताः । इत्याद्याः स्थूला अनन्तकायिकाः स्युः ।।
अर्थः-सवाल, परणक, केणुग, कवंग और पुष्पक इत्यादि ये सब वादर अनन्तकायिक वनस्पति हैं ।।७१।।
अब इसी को भाष्य रूप में कहते हैं :---
जल में जो हरी हरी काई होती है, उसे सवाल, भूमि में जो हरी हरी काई होती है उसे पएक, ईंट आदि में जो उत्पन्न होती है उसे केशुक, श्वेत, हरे और नील वरणं के छत्र रादश को पालम्वक ( कुकुरमुत्ता), मल या कचरे में उत्पन्न होने वाले को कवग, धक छत्र को शृगाल कहते हैं ( एक प्रकार का कुकुरमुत्ता जिसकी डंठल टेडी होती है )। पाहार कांजी आदि के ऊपर उत्पन्न होने वाली फफूदी को पुष्पिका कहते हैं। इस प्रकार सेवालादि अनेक बादर अनन्तकायिक वनस्पतियाँ होती हैं ।।
अब साधारण, प्रत्येक, सुक्ष्म एवं बादर जीवों के लक्षण और उनके निवास क्षेत्र आदि का कथन करते हैं :--
गूढानि स्युः सिरासन्धि पर्वाणि जन्मिनां भुवि । येषां स्यान्समभङ्ग चाहीरुकं सूत्रसलिभम् ।।७२।। छिन्नभिन्नशरीराणि प्रारोहन्त्यप्यनन्ततः। तेन साधारणा जीयाः प्रत्येकास्तविपर्ययाः ॥७३॥ एते स्युर्वादराजोवाः क्वचिल्लोके पथचिन्न छ । पृथ्ब्यादि कापमापन्नाः पञ्चधाः स्थावराः परे ।७४।। सूक्षमाः पृथ्ष्यादयः पञ्चस्थावरा दृष्टयगोचराः । एते तिष्ठन्ति सर्वत्र प्रपूर्य भुवन त्रयम् ॥७॥