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एकादशोऽधिकार
प्रब जीयों के संस्थानों का कथन करते हैं :
पृथ्व्यदिनां च संस्थान मसरिकाकणाकृतिः । अप्कायानां हि संस्थानं वर्भाग्नविन्दुसन्निभम् ।।११३॥ तेजः कायात्मनां तत् स्यात् सूचीकलापसम्मितम् । संस्थानं वायुकायानां पताकाकारमेव च ।।११४॥ समादिचतुरस्र च न्यग्रोधस्वातिकुब्जकाः । धामनाख्यं हि हुण्डाख्यं संस्थानानाति षड्भुवि ।।११५॥ मनुष्याणां च पश्चाक्षतिरश्चां सन्ति तानि षट् । देवानामादिसंस्थान द्वारका हि हुण्डकम ।।११६।। द्वित्रितुर्येन्द्रियाणां च सर्वेषां हरिताङ्गिनाम् ।
अनेकाकारसंस्थान हुण्डाख्यं स्याद् विरूपकम् ॥११७॥ अर्थ:-पृथिवीकायिक जीवों के शरीर का प्राकार मसूर के का। सश, जलवायिक जीवों के शरीर का आकार डाभ के अग्रभाग पर रखी हुई जलविन्दु के सदश, अग्नि कायिकों का खड़ी सुइयों के समूह सदृश और वायुकायिक जीवों के शरीर का संस्थान वजा के सदृश होता है ॥११३-११४।। समचतुर
संस्थान, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक ये छह संस्थान संसारी जीवों के होते हैं ।। ११५।। मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के छहों संस्थान होते हैं। देवों के समचतुरस्र एवं नारकियों के हूण्डक संस्थान ही होते हैं ॥११६।। द्वीन्द्रिय, शेन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के तथा सम्पूर्ण बनस्पतिकायिक जीवों के विविध प्राकारों को लिए हुए विरूप आकार वाला हुण्डक संस्थान होता है ।।११७।। अब संसारी जोवों के संहननों का विवेचन करते हैं :---
म्लेच्छविधेशमानां संज्ञिपञ्चेन्द्रियात्मनाम् । कर्मभूतिरश्चां च सन्ति संहनानि षट् ॥११८॥ असंजिविकलाक्षाणां लब्ध्यपर्याप्तदेहिनाम् । अशुभं चान्तिमं होनं षष्ठं संहननं भवेत् ॥११६।। वत्रर्षभादिनाराचं वज्रास्थिभयवेष्ठितम् ।
आद्यं च वज्रनाराचं वज्रास्थिजं द्वितीयकम् ॥१२०॥ नाराचं त्रीणि चेमानि सन्ति संहननानि च । परिहारविशुद्धयाख्पसंयमाप्तमुनीशिनाम् ॥१२१।।