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एकादशोऽधिकारः
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के आदि के तीन दृढ संहननों में से कोई एक होता है। क्षपक श्रेणीगत अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलि गुणस्थानों में प्रवर्तमान मुनिराजों के आदि का मात्र एक वर्षभनाराच संहनन ही होता है ।।१२५-१२८॥ अयोगी जिनों के, देवों के, नारकियों के, पाहारक शरीरी महा ऋषियों के एकेन्द्रिय जीवों के और ग्रागामी पर्याय में जन्म लेने के लिए विग्रह गति में जाने वाले कार्मरण काय युक्त जीवों के संहनन नहीं होता । अर्थात् इन जोवों का शरीर छहों संहननों से रहित होता है ।।१२६-१३०॥ अब संसारी जीवों के वेदों का कथन करते है:
एकाक्षविकलाक्षाणां सर्वेषां नारकात्मनाम् । सन्मर्छनजपञ्चाक्षाणां वेदको नपुसकः ।।१३१॥ भोगभूमिभवार्याणां चतुविधसुधाभुजाम् । विश्वानां भवतो वेदी द्वौ स्त्रीपुसंज्ञको भुवि ॥१३२॥ शेषाणां गर्भजानां च तिरपचो मनुजात्मनाम् ।
स्त्रीपुनपुंसकाभिस्याः सन्ति वेदास्त्रयः पृथक ॥१३३॥ अर्थः-सम्पूर्ण एकेन्द्रिय जीवों के, विकलेन्द्रिय जीवों के, नारको जीवों के और सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीवों के एक नपुसक वेद ही होता है ।।१३१॥ भोगभूमिज पार्यों के तथा चारों निकायों के देवों के स्त्री और पुवेद नाम वाले दो ही वेद होते हैं ।। १३२॥ शेष सम्पूर्ण मनुष्यों एवं नियंत्र जीवों के पृथक् पृथक्, स्त्रीबेद, पुवेद और नपुसकबेद नाम के तीनों वेद होते हैं ।।१३३।। अब जीवों की उत्कृष्ट और जघन्य प्राय का प्रतिपादन करते हैं :--
मृनुपृथ्वीशरीराणामुत्कृष्टमायुर असा । द्विषड्वर्षसहस्रागि खरपृथिवीमयात्मनाम ।।१३४॥ द्वाविंशतिसहस्राणि वर्षाणां जीवितं परम् । सप्तसहस्रवर्षाण्यप्कायानां सुष्ठुजीवितम् ।।१३५॥ तेजोमय कुकायानामायुदिनत्रयं भवेत् । त्रीणि वर्षसहस्राणि ह्यायुर्वाताङ्गिनां परम् ॥१३६।। दशवर्षसहस्त्राण्यायुर्वनस्पति देहिनाम् । वर्षाणि द्वादशवायुः प्रवरं द्वीन्द्रियाङ्गिनाम् ।।१३७।। श्रीन्द्रियाणां तथैकोनपञ्चाशद्दिनजीवितम् । षण्मासप्रमितायुष्कं चतुरिन्द्रियजन्मिनाम् ॥१३८।।