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सिद्धान्तसार दीपक
अप्चराणां हि लक्षाणि सार्धद्वादशकोटयः । कुलानि पक्षिणां द्वादशकोटिलक्षकानि च ॥६१।। दशैव कोटिलक्षाणि कुलानि स्यश्चतुष्पदाम् । नवव कोटिलक्षाण्युरः सर्पाणां कुलानि च ॥१२॥ पड्विंशकोटिलक्षाणि कुलानि स्युः सुधाभुजाम् । पञ्चविंशतिकोटी लक्षाणि नारकजन्मिनाम ॥६॥ प्रायोग मोगामिभनुष्याणां कुलानि च । द्विसप्तकोटिलक्षाणोति सर्वेषां च देहिनाम् ||१४|| एकवकोटिकोटोनवतिः सार्धनवाधिका । कोटीलक्षारिण सिद्धान्ते कुलसंख्या जिनोदिता ।।६।। इत्यङ्गकुलजात्यादौन सम्यग्ज्ञात्वा बुधोत्तमः ।
षङ्गिनां दया कार्या धर्मरत्नखनी सदा ॥६६॥ अर्थः--(शरीर के भेदों को कारण भूत नाना प्रकार की नोकर्म वर्गणानों को कूल कहते हैं) पृथ्वीकायिक जीवों की बाईस लाख कोटि, जलकायिक जीवों की सात लास्त्र कोटि, अग्निकायिक जीवों की तीन लाख को टि, वायुका यिक जीवों को सात लाख कोटि, वनस्पतिकायिक जीवों की २८ लाख कोटि, द्वीन्द्रिय जीवों की सात लाख कोटि. श्रीन्द्रिय जीवों को पाठ लाख कोटि, चतुरिन्द्रिय जीवों को ६ लाख कोटि, जलचर जीवों को साढ़े बारह लाख कोटि, पक्षियों को बारह लाख कोटि, चतुष्पद (पशुओं) की दश लाख कोटि, छाती के सहारे चलने वाले सर्प आदिकों की नव लाख कोटि, देवों को २६ लाख कोटि, नारकी जीवों को २५ लाख कोटि तथा आर्य मनुष्य, म्लेच्छ मनुष्य और विद्याधरों ( इन सब) की चौदह लाख कोटि, इस प्रकार सम्पूर्ण कुल कहे गये हैं ।।८७-६४॥ जिनेन्द्र भगवान ने पागम में पृथिवीकायिक से लेकर मनुष्य पर्यन्त सम्पूर्ण संसारी जीवों के कुल कोटि की संख्या का योग एक करोड़ निम्यानबे लाख पचास हजार कोटि ( १६६५.००००००००००० ) कहा है ।।१५।। इस प्रकार विद्वानों को जीवों के कुल और जाति आदि के भेदों को भली प्रकार जान कर धर्म रूपी रत्नों को खान के सदृश निरन्तर छह काय जीवों की दया में उपक्रम करना चाहिए ॥६६॥ अब योनियों के भेद, प्रभेव, प्राकार और स्वामी कहते हैं :---
सचित्ताचित्तमिथास्याः शीतोष्णमिश्रयोनयः । संवृता विवृता मिश्राश्चेत्येता मवयोनयः ॥१७॥