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दशमोऽधिकारः
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उन पर्वतों के ऊपर स्थित द्वीपों को और पर्वतों के स्वामियों को कहते हैं :
एषामुपरि सर्वेषां द्वीपाः स्युः प्रवरा युताः । नाना प्रासादसद्वेदीप्रोद्यानगोपुरादिभिः ॥ ६६ ॥ तेषु द्वीपस्थसोधेषु वसन्ति व्यन्तरामराः । तुझेषु स्वस्वर्शलेम समनामान ऊर्जिताः ॥६७॥
अर्थः:- इन सम्पूर्ण पर्वतों के ऊपर द्वीप हैं, जो अनेक कमरों वाले प्रासादों से उत्तम वेदियों, उद्यानों और गोपुरों आदि से संयुक्त हैं । उन द्वीप स्थित ऊँचे ऊँचे प्रासादों में अपने अपने पर्वतों के नाम सदृश नाम वाले व्यन्तर देव रहते हैं ।। ६६-६७।।
अब वायव्य दिशा में स्थित गोतम द्वीप, उसके ऊपर स्थित प्रासाद और उसके रक्षक देव का सविस्तार वर्णन करते हैं।
प्रस्तराट् द्विषट्संख्य सहस्रयोजनान्यपि । लोऽस्ति वायुदिवको गोतमाख्योऽतिसुम्बर: ।। ६८ । सत्समोदयविस्तीर्णो वनवेद्याद्यसंकृतः । विचित्रवर्णनोपेतः शाश्वतः सुरसंकुलः ||६६॥ तस्योपरिमहान द्वीपो गोतमाख्योऽतिमास्वरः । स्वर्णदेवी स्फुरद्रत्नप्रासादवनगोपुरः ॥७०॥ तस्याप्रे भवनं तु सार्धंद्विषष्टियोजनः । तदर्धविस्तरायामं श्रोशद्वयावगाहमाक् ।। ७१ ॥ नानारत्नमयं स्याच्च द्वारेणाऽलंकृतं महत् । प्रष्टयोजनतुङ्ग ेन चतुर्थ्यासयुतेन च ॥ ७२ ॥ गोतमारयोऽमरस्तत्र वसेत् पल्यंकजीवितः । दशचापोच्च विध्याङ्गः स्वदेवोसुरभूषितः ॥ ७३ ॥
अर्थ:- लवण समुद्र से १२००० योजन दूर जाकर वायव्य दिशा में स्थित गोतम नाम का प्रति सुन्दर पर्वत है, जो १२००० योजन ऊंचा, १२००० योजन चौड़ा, वन वेदियों से अलंकृत नाना प्रकार की रचना से युक्त, शाश्वत और अनेक देव गणों से युक्त है ।।६८- ६६ ।। उस पर्वत के ऊपर गोदम नाम का एक महान द्वीप है, जो स्वर्णमय वेदी, तेजोमय रत्नों के प्रासादों, वनों एवं गोपुर द्वारों से देदीप्यमान है || ७ | उस द्वीप के (ऊर) आगे साढ़े बासठ योजन ऊँचा. सवा इकतीस ( ३१४ ) योजन लम्बा और दो कोश की भवगाह ( नोंत्र ) से युक्त भवन है । जो विविध प्रकार के रत्नमय,