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सिद्धान्तसार दीपक
तिर्यञ्चो भद्रका नान्ये ततः स कथ्यते श्रुते ।
तिर्यग्लोकोऽप्यसंख्यातस्तियंग्मृतो नृदूरगः ॥२४॥ अर्थ:-मानुषोत्तर पर्वत ने मनुष्यों की सीमा का निरधारण कर दिया है, इसीलिये अढ़ाई द्वीप में तो मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों हैं, किन्तु इसके प्रागे असंख्यात द्वोपों में केवल भद्रपरिणामी तिर्यञ्च ही हैं, अन्य कोई नहीं हैं, इसीलिये प्रागम में इसे तिर्यग्लोक कहा है । यह नियंग्लोक मनुष्यों से रहित है घोर असंख्याततिर्यंचों से भरा हुआ है ॥२८३-२८४।। पब पुष्करवर द्वीप से प्रागे के द्वीप-समुद्रों के नाम और उनके स्वामी कहते हैं :
पुष्करद्वीपमावेष्टय तं तिष्ठेत् पुष्करार्णवः। श्रीप्रभश्रीधरौ देवी जलधेरस्य रक्षको ॥२८५।। सतोऽस्ति वारुणोद्वीपोऽस्येमौ स्तो रक्षको सुरौ । वरुणो दक्षिणे मागे ह्य तरे वरुणप्रभः ।।२६६।। ततः स्थात्तबहिर्भागे थारुणीवरसागरः । मध्याख्यमध्यमाभिख्यो भवतोऽस्य सुनायको ।।२७।। तस्मात् क्षीरथरद्वीपो भवेत् ख्यातोऽस्य रक्षको व्यन्तरी पाण्डुराभिस्य पुष्पदन्तौ स्त अजितो ॥२८॥ ततः क्षीरसमुद्रोऽस्ति जिनेन्द्रस्नानकारणः । प्रस्येमौ स्वामिनी स्यातां विमलो विमलप्रभः ॥२६॥ सस्माल् धृतवरद्वीपस्तस्यतो परिपालको । दक्षिणोत्तर भागस्थौ सुप्रभाल्य महाप्रभो ॥२६॥ तिष्ठत्यतस्तमावेष्ट पाम्बुधिघृतवरायः । प्रस्याब्बेः स्तः पती चैतौ कनकः कनकप्रभः ॥२६१॥ तत इश्वरद्वीपो भवत्यस्याभिरक्षको । भवतो व्यन्सरी पूर्णपूर्णप्रभ समाह्वयौ ॥२६२॥ परितस्तं समावेष्टय तिष्ठत्तीभुवरार्णवः ।
स्यातां गम्धमहागन्धाख्यो देवौ तस्य सस्पती ।।२६३।। अर्था:-पुष्करवरद्वीप को वेधित कर बलयाकार रूप से पुष्करवर समुद्र है, श्रीप्रभ और श्रीधर नाम के दो देव इस समुद्र को रक्षा करते हैं ॥२८॥ इस समुद्र को वेष्टित कर वारुणीवर द्वीप है,