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एकादशोऽधिकार:
[ ४०१ अग्निकाय होने से इन सब अग्नियों का अनिलयोनियों में अन्तर्भाव हो जाता है । तेजकाय के आश्रित रहने वाले सर्व तेजकायिक जीवों को भली प्रकार जानकर मुनिजन इनकी अहनिश प्रयत्न पूर्वक रक्षा करते हैं ।।४५-४८॥ अब वायकायिक जीवों के स्थानों का वर्णन करते हैं :--
यातः सामान्यरूपश्चोभ्रमर्जवं भ्रमन व्रजेत् । उत्कलिमंण्डलिपृथ्वीलग्नो भुमन प्रगच्छति ॥४६॥ गुजावातो महावातो वृक्षादिभङ्गकारकः । घनादधिश्च नाम्ना घनानिलस्ततुवातवाक् ।।५।। उदरस्थविमानाधारपृश्यधस्तलाश्रिताः । त्रिलोकाच्छादका बाता प्रत्रवान्तभवन्ति च ॥५१॥ एतान् घाताङ्गभेदांश्च जीवान बातवपुः श्रितान् ।
ज्ञात्वा नित्य प्रयत्नेन पासयन्नु स्वचादिः अर्थ:-सामान्य रूप वायु, उद्मम वायु, ऊार भ्रमण करने वाली वायु, उत्कलि बायु, मण्डल वायु, पृथ्वी स्पर्श कर भ्रमण करने वाली वायु, गुजाबात, वृक्षों प्रादि को नष्ट करने वाली महावायु, घनोदधि वायु, घन वायु, तनु वायु, उदरस्थ वायु, विमान जिसके आधार हैं, वह वायु, पृथ्वीतल के प्राश्रित वायु और लोक्य पाच्छादक वाय, ये सर्व वाय इन्हीं पवनों में अन्तर्भूत होती हैं । ये सब भेद वायुकाय के कहे गये हैं। वायु कायिक जो इसी वायकाय के प्राधित रहते हैं, ऐसा जानकर विद्वज्जनों को इन्हें अपनो आत्मा के सदृश समझ कर नित्य ही इनकी दया का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए ।।४६-५२।। अब वनस्पतिकायिक जीवों के भेद कहते हैं :--
असाधारणसाधारण मेराभ्यां जिनागमे । कीर्तिता द्विविधाः संक्षेपादनस्पतिकायिकाः ॥५३।। प्रत्येकं द्विप्रकारास्ते साधारणतराङ्गिनः । उदकाद्यश्च जोवोत्थ सन्मूच्छिमद्विभेदतः ।।५४।। मूलाग्रपोरकन्वस्कन्धवीजोमयदेहिनः । स्वपत्राणि प्रवालानि पुष्पाणि च फलान्यपि ॥५५॥ गुल्छागुल्मानि वल्ली च तृण पर्वादि कायिकाः । प्रत्येकादि चतुर्भेदानां सभेदा मता इमे ।।५६॥