________________
सिद्धान्तसार दीपक महिकाख्यं जलं धूमाकाराम्बु च हरजलम् । स्थूलविन्दुजलं चाणुः सूक्ष्मविन्दुजलं तथा ॥४१॥ शुद्धाम्बुचन्द्रकान्तोत्थमुदकं निराविजम् । सामान्याम्बुधनाख्याम्भोऽब्धिगहमेघवातजम् ॥४२।। सरित्कूपसरःकुण्डनिझराब्धिहदादयः । एष्वप्कायेषु सर्वेऽन्येऽन्तर्भवन्त्यम्बुकायिकाः ॥४३॥ एतानकायसभेवानप्कायाश्रितान् बहून् । ।
जोवान विज्ञाय यत्नेन पालयन्त्वात्मवत्सवा ॥४४॥ अर्थ:-रात्रि के पिछले पहर में उत्पन्न होने वाला प्रोस जल, हिम नाम का जलकाय, मेष जलकाय, कोहरे का जल, धूम ग्राकार ( धुन्ध ) जल, डाभ को ग्रामी पर स्थित जल, स्थूल विन्दु जल, जलकरण, सूक्ष्म विन्दु जल, शुद्ध जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, झरनों आदि से उत्पन्न जल, सामान्य जल, धन जल ( घनोदधि ), ब्रहजल, मेघ से उत्पन्न जल, घनवातज जल, नदी, कूप, सालाव, कुण्ड, झरना, समुद्र एवं सरोवर आदि सर्व जल का जलकाय में अन्तर्भाव होने से यह सब जलकायिक ही है ! इन सब जलकाय के भेदों को तथा जलकाय के आश्रित रहने वाले असंख्यात जीवों को अपनी मात्मा के सदृश जान कर प्रयत्न पूर्वक निरन्तर उनकी रक्षा करना चाहिए ॥४०-४४।। अब अग्निकायिक जीवों का प्रतिपादन करते हैं :
अङ्गाराणि ज्वलज्ज्वालाह्यचिर्दीपशिखादिका । मुर्मराख्यो हि कार्षाग्निः शुद्धाग्निर्बहुभेदभाक् ।।४५।। विद्युत्पाताग्निवज्राग्निसूर्यकान्तादिगोचरः । पग्निसामान्यरूपाग्निनिर्धूमो वाडयादिजः ।।४६॥ नन्दीश्वरमहाधूमकुण्डिकामुकुटादिजाः । अग्निकाया प्रमोष्वन्तर्भवन्त्यनलयोनिषु ॥४७।। इमास्तेजो मयान जीवांस्तेजःकायान् श्रितान परान् ।
विदित्वा सर्वयत्नेन रक्षन्तु मुनयोऽनिशम् ॥४॥ अर्थ:-अंगार रूप अग्नि, ज्वालाग्नि, अचि अग्नि, दीपशिखाग्नि, मुर्मराग्नि, काग्नि, और बहुत प्रकार की शुद्धाग्नि, विद्युत्पाताग्नि, वनाग्नि, सूर्यकान्त आदि से उत्पन्न अग्नि, सामान्य अग्नि, निधूमाग्नि, वडवाग्नि, नन्दीश्वरद्वीपस्थ महाधुम कुण्डों की अग्नि तथा मुकुट आदि से उत्पन्न अग्नि,