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सिद्धान्तसार दीपक
जीवयुक्तस्तृतीयश्चचतुर्थो भेद ईरितः । स्यक्तप्राग्वपुषां भाविपृथ्व्याद्यङ्गाय गच्छताम् ॥२७।। एतान् भेदान् बुधैत्विा सचेतनानचेतनान् ।
पृथ्ख्यादीनां सुरक्षाय कर्तव्यं यत्नमासा ।।२।। अर्थः-इन पंच स्थावरों के चार चार भेदों में से प्रथम भेद किंचित् जीव युक्त होता है । द्वितीय भेद मात्र अजीव होता है, तृतीय भेद जीव सहित होता है, और चतुर्थ भेद में जीव पूर्व शरीर को छोड़ कर पृथ्वी आदि शरीर को धारण करने के लिये जाता है अतः यह चेतन ही है । इस प्रकार विद्वानों के द्वारा कहे हुये भेदों में चेतन अचेतन भेदों को जान कर पृथ्वी आदि पंच स्थावरों की रक्षा के लिए यत्न करना चाहिए ॥२६-२८।।
अब पृथ्वीकायिक जोवों में से मृटुपथ्वीकायिक जोवों के भेदों का निरूपण फरते हैं :
मृत्तिका वालुका लोहं लवणं सागरादिजस । तान रूप्यं स्वर्ण च विपुषः सीसकं तथा ॥२६॥ हिङगुलं हरितालं च मनःशिलाथ सस्यकम् । प्रजनं ह्यभ्रकं चाभ्रवालुकामी हि षोडश ॥३०॥ मेदा मृदुपश्चोकायात्मनां प्रोक्ता जिनागमे ।
इशानी खरपृथ्वीनां भेदान मण्यादिकान् अवे ॥३१।। अर्थ:-मिट्टी, बालुका, लोहा, समुद्र आदि में उत्पन्न होने वाला नमक, ताम, चाँदी, स्वर्ण, त्रिपुष (कथीर या रांगा), सोसा, हिंगुल, हरताच, मनःशिला, जस्ता, प्रजन (नौलाथूथा या सुरमा), अभ्रक और भोडल ये सोलह भेद जिनागम में कोमल पृथ्वोकायिक जीवों के कहे गये हैं, अब खर पृथ्वी के मरिण आदि भेदों को कहते हैं ।।२९-३१॥ अब खर पृथ्वी के भेदों का निरूपण करते हैं :--
प्रवालं शर्करा वन शिलोपलं ततः परम् । कर्केतनमरिणाम्ना रजकाख्यो मणिस्ततः ॥३२॥ चन्द्रप्रभोऽथ बैडूर्यकोमणिः स्फटिको मणिः । जलकान्तो मणिःसूर्यकान्तश्च गैरिको मरिणः ॥३३॥