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दशमोऽधिकारी
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न सन्त्यासु समस्ताशु यस जन्लव, श्यचित् ।
कृमिकुन्थ्वादिदंशाधाः क्रूरा वा विकलेन्द्रियाः ॥४०१॥ अर्थ:--मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भाग से नागेन्द्र पर्वात पर्यन्त जो असंख्यात द्वीप हैं, उनमें जघन्य भोगभूमि की रचना है। इस जघन्य भोगभूमि में मात्र तिर्यंच रहते हैं, उनको सपा असंख्यात है, अर्थात् असंख्यात तिथंच रहते हैं ।। ३६६ ।। इन द्वीपों में रहने वाले सभी तिर्यच गर्भज, भद्र', शुभ परिणति से युक्त, पंचेन्द्रिय और फरता रहित होते हैं । इनका जन्म युगल रूप से हो होता है ।।३६७। यहाँ जो तिथंच उत्पन्न होते हैं, वे मृग ग्रादि शुभ जातियों में उत्पन्न होते हैं, एक पल्य को प्रायु के धारक एवं वर मात्र से रहित होते हैं, तथा कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग भोगते हैं ॥३६॥ ये जीव मन्द कषायी होते हैं. अतः मर कर स्वर्ग हो जाते हैं। जिन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होता वे भवनत्रिक में उत्सन्न होते हैं ।।३६६|| जो मूड जीव सम्यग्दर्शन और व्रतों से रहित हैं, तथा कुपात्रदान से उत्पन्न कुछ पुण्य, उससे जो कुत्सित भोगों को बांछा करते हैं, वे जीव मरकर इस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं ॥४००॥ इस जघन्य भोगभूमि की समस्त धरा पर कृमि, कुन्थु एवं मच्छर आदि तुच्छ जन्तु, क्र र परिणामी जीव एवं विकलेन्द्रिय जीव कभी भी उत्पन्न नहीं होते ॥४०१॥
अब विकलेन्द्रिय जीवों के एवं मत्स्यों के उत्पत्ति स्थान बतलाकर तीनों समुद्रों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्यों के व्यास आदि दर्शाते हैं :--
किन्तु ते विकलाक्षाः स्युः सार्धद्वये सदा । स्वयम्भूरमणार्धे च स्वयम्भूरमणाद्वहिः ।।४०२।। लघणोदे च कालोदे स्वयम्भूरमणार्णवे । मत्स्या जलचरामन्ये भवन्ति करमानसाः ॥४०३॥ शेषासंख्यसमुद्रेषु मत्स्याद्या जातु सन्ति न । भोगक्ष्मामध्यभागे स्थितेनु वयक्षादयो न था ॥४०४।। स्वयम्भूरमणाम्भोधेस्तीरे पञ्चशतायताः । योजनानां महामत्स्याः सन्ति सन्मूर्छनोद्भवाः ।।४०५॥ सहस्रयोजनायामा अन्धेरभ्यन्तरे स्थिताः । मत्स्याः सन्मूर्छनोत्थास्तदर्धायामाश्च गर्भजाः ॥४०६॥ नद्यास्ये लवणाम्भोधौ मत्स्याः सन्मूच्र्छनोद्भवाः । नवयोजन दीर्घाङ्गास्तदर्धाङ्गाश्च गर्भजाः ॥४०७।।