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सिद्धान्तसार दोपक समुद्र में यहाँ स्थित जीवों को चारों गतियां प्रदान करने वाली एक कर्म भूमि है । यहाँ पर व्रत प्रादि से रहित और प्रायः क्रू र स्वभाव वाले तिर्यञ्च रहते हैं। इनमें कुछ तिर्यञ्च संयतासंयत अर्थात् देशबती हैं, जो अपने यतों में तार रहते हैं ।।३६०-३६१||
अब बाह्य पुष्कराध के रक्षक देव और मानुषोत्तर पर्वत की परिधि का प्रमारण कहते हैं :--
चक्षुष्मान् हि सुचक्षुश्चेमो देवौ परिरक्षकौ । मानुषोत्तरशैलस्य पुष्करार्धान्तिमस्य च ।।३६२॥ एकाकोटीद्विचत्वारिंश लक्षारिण सहस्रकाः। षनिशच्च शतान्येव सप्त स्फुट त्रयोदश ।।३६३ । योजनानां च गन्यूत्येकमिति प्रोक्तसंख्यया । परिधिः स्यादबहिर्भागे मानुषोत्तरसगिरेः ॥३६४।। तस्यैव परिधे ह्यभागेषु शाश्वता: स्थिताः ।
स्वयं प्रभाविपर्यन्ता ये द्वीपाः संख्यजिताः ॥३६५।। प्रर्थः-चक्षुष्मान् और सुचक्षुष्मान् ये दो देव बाह्य पुष्कराध द्वीप के अधिपति हैं । पुष्कराध के अन्त में अवस्थित मानुषोत्तर पर्वत को परिधि १४२३६७१३ योजन और एक कोस प्रमाण कही गई है। परिधि का यह प्रमाण मानुपोत्तर पर्वत के बाह्य भाग का है। इस ही परिधि के बाह्यभाग से प्रारम्भ कर स्वयंप्रभ ( नागेन्द्र ) पर्णत पर्यन्त असंख्यात द्वीप हैं ॥३९२-३६५।।
सेषु द्वीपेष्यसंख्येषु जघन्याभोगभूमयः । सम्बन्धिन्यस्ति रश्चां स्युः केवलं संख्यदूरगाः ॥३६६।। पातु सर्वासु लिर्यञ्चो गर्भजा भद्रकाः शुभाः । युग्मरूपाश्च जायन्ते पञ्चाक्षाः करतातिगाः ॥३६७।। एकपल्योपमायुष्का मृगावि शुभजातिजाः । कम्पमसमुत्पन्नभोगिनो वैरबजिताः ।।३६८।। मन्दकषायिणोऽप्येते मृत्वा यान्ति सुरालयम् । ज्योतिर्भावन भौमेषु न स्वर्ग दर्शनं बिना ॥३६६।। कुपात्रवानपुण्यांशात् कुत्सिताभोगकांक्षिणः । केवलं दग्वतातीता जायन्तेऽत्राबुधाङ्गिनः ।।४००।