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सिद्धांतसार दीपक
अर्थ-लवण समुद्र के जल का स्वाद नमक के सदृश खारा है । वारुणीवर समुद्र के जल का स्वाद मद्य के स्वाद सदृश है। क्षीरवर समुद्र के जल का स्वाद दूध के स्वाद समान है और घृत वर समुद्र के जल का स्वाद एठां स्निग्धता घी के सदृश है ।।४१५-४१९।। कालोदधि पुष्करवर समुद्र और स्वयम्भूरमण समुद्रों के जल का स्वाद सुमधुर जल के स्वाद सरश है। इन सात समुद्रों को छोड़ कर अवशेष असंख्यात समुद्रों के जल का स्वाद अत्यन्त स्वादिष्ट शारस के सदृश मधुर और सुस्वादु है ।।४२०-४२१॥
अब सर्व द्वीप समुद्रों के व्यास से स्वयम्भूरमण समुद्र के व्यास की अधिकता का प्रमाण कहते हैं :
समस्तद्वोपयार्थीनां व्यासात पिण्डीकृताद्भवेत् । स्वयम्भूरमणश्चाधिकच्यासो लक्षयोजनैः ॥४२२॥ इति प्रारद्वोपवाधिभ्योऽपरोद्वीपोऽथ चाम्बुधिः।।
भवेवधिकविष्कम्भो लक्षकयोजनः स्फुटम् ॥४२३॥ अर्थः-समस्त द्वीप समुद्रों का व्यास एकत्रित करने पर जितना प्रमाण होता है, उससे स्व. यम्भूरमण समुद्र का व्यास एक लाख योजन अधिक है । इसी प्रकार पूर्व पूर्व द्वीप और समुद्रों के व्यास से आगे प्रागे के द्वीप मोर समुद्रों का व्यास भी एक एक लाख योजन अधिक होता है ॥४२२-४२३।।
अब मध्यलोक के वर्णन का उपसंहार एवं प्राचार्य अपनी लघुता प्रगट करते हैं :--
इत्येवं विविधं जिनेन्द्रगदितं श्रीमध्यलोक परम्, किञ्चिच्छास्त्रधिया मया च विधिना संवणितं मुक्तये । धर्मध्याननिबन्धनं सुनिपुणाः सद्धर्मसंसिद्धये, सध्या वचसा पठन्तु विमलं कृत्वा च तनिश्चयम् ॥४२४॥
अर्थ:-इस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा कहा हा मध्य लोक का नाना प्रकार का उत्कृष्ट वर्णन मैंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए पागमानुसार विधिपूर्वक किया है. यह वर्णन धर्मध्यान का निबंधक है । इसमें यदि कहीं कुछ भूल हुई हो तो सज्जन पुरुष उत्तम धर्म ( शिव ) को प्राप्ति के लिए इसे अपनी बुद्धि से शुद्ध करके पढ़ें ॥४२४।।
अधिकारान्त मङ्गलाचरण :-- येऽस्मिन् सन्ति सुमध्यलोकसकले श्रीमब्जिनेन्द्रालयाः, श्रीनिर्वाणसुभूमयो बुधनुताः श्रीधर्मतीर्थाधिपाः ।