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दशमोऽधिकार
अब व्यास प्रादि से युक्त रतिकर पर्वतों और सर्व जिनालयों का वर्णन करते हैं :
तासां समस्तवापीनां प्रत्येकं बाह्यकोणयोः । द्वौ द्वौ रतिकराभिस्थौ भवतः पर्वतों शुभी ॥३२२॥ द्वात्रिंशदत्योऽते तुङ्गाः सहस्रयोजनः । विस्तृताः पटहाकाराः स्योच्चतुर्याशगाहकाः ॥३२३॥ सौवर्णाः शाश्वताः सर्वेऽत्राञ्जनाद्या महाचलाः ।। पिण्डीकृता द्विपञ्चाशद् भवन्त्यतिमनोहराः ॥३२४॥ एषां सर्वमहीन्द्राणां मून्यकक जिनालयम् । शाश्वतं सुरपूजाढ्यं भवेत् त्यक्तोपमं परम् ॥३२५।। सर्वे पिण्डीकृतास्ते द्विपंचाशच्छोजिनालयाः । स्वर्णरत्नमया दिव्याः स्फुरद्दीप्रा मनोहराः ॥३२६॥ पूर्वोक्त वर्णनोपेताः सर्वज्येष्ठा विमान्त्यालम् । देवसंघमहाभूत्या धर्माकरा इवोजिताः ॥३२७।।
प्राङ्मुखाः सुरनाथावोनाह्वयन्तः इवानिशम् । - जिनार्चाय शुभाप्त्यै च तुङ्गध्वजकरोत्करैः ।।३२८॥
अर्थाः-उन समस्त चापियों में से प्रत्येक वापी के दोनों वाय कोणों पर अतोच शुभ रतिकर नाम के दो दो पर्वत हैं, इस प्रकार १६ बापियों के दो दो कोणों पर ३२ रतिकर पर्वत हैं, इन सभी पर्वतों की भिन्न भिन्न ऊँचाई १००० योजन, चौड़ाई १००० योजन, अगाध ( नींब ) ऊँचाई का चतु.
शि अर्थात् २५० योजन है, अनानिधन इन सब पर्वतों का आकार ढोल सदृश और वसं तपाये हुए स्वर्ण समान है। मन को हरण करने वाले अञ्जनादि सभी पर्वतों का योग (४+१६+ ३२)--५२ होता है ।।३२२-३२४॥ इन सब ५२ पर्नतों के शिखर पर शाश्वत, देवेन्द्रों से पूज्य, उपमा रहित और परमोत्कृष्ट एक एक जिनालय हैं। अत्यन्त कान्तिमय है प्रकाश जिनका ऐसे दिव्य और मनोहर उन स्वर्ण और रत्नमय सब जिनालयों का कुल योग ( ४ + १६+३२ )= ५२ है ।।३२५-३२६।। जो पूर्वोक्त वर्णन से सहित है, उत्कृष्ट अायाम आदि युक्त हैं और धम की खान के समान हैं, ऐसे वे ५२ चैत्यालय महाविभूति युक्त देव समूहों के द्वारा अत्यन्त शोभायमान होते हैं ।।३२७।। वे समस्त चैत्यालय पूर्वाभिमुख हैं, और उन ज व जामों से ऐसे सुशोभित होते हैं मानों ये अपने ध्वजा रूपी हाथों से अहर्निभ परमशुभ जिन पूजा के लिए सुरेन्द्र आदिकों को ही बुला रहे हों ।।३२८।।