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दशमोऽधिकारः
[ ३36 चतुःषष्टिबनानां च मध्ये सन्ति मनोहराः । सत्प्रासादाश्चतुःषष्ठिवननामसुराश्रिताः ॥३३६।। द्विषष्टि योजनोत्सेधा पायामबिस्तरान्विताः । एकत्रिशस्प्रमाणश्च योजनेरि भूषिताः ॥३३७।। प्राषाढे कातिके मासे फाल्गुने च निरन्तरम् । प्रतिवर्ष सुरैः सार्ध चतुनिकायवासत्राः ।।।३३८।। स्वस्वसद्वाहनारूढाः सकलत्राः शुभाशयाः। विभूत्या परया भक्त्यागत्यारभ्याष्टमीविनम् ॥३३६।। प्राष्टाह्निको महापूजां कुर्वन्ति पुण्यमातृकाम् । त्रिजगन्नाथमूर्तिनां विश्वचैत्यालयेषु च ।।३४०॥ अभिषेकं महग्नित्यं सुरनाथाः सुरैः समम् । द्विद्विप्रहरपर्यन्तमेककदिशि शान्तये ॥३४१।। कनकाञ्चकुम्मायभिगतनिभलाभिः । महोत्सवशतैर्वाद्यैर्जयकोलाहलस्वनः ॥३४२॥ नित्यं प्रकुर्वते भूत्या विश्वविघ्नहरं शुभम् ।
जिनेन्द्रविष्यविम्बानां गीतनृत्यस्तवैः सह ।।३४३।। अर्थः-६४ वनों के मध्य में वनों के सदृश नाम वाले देवों के प्रति मनोहर ६४ प्रासाद हैं। इन प्रासादों में से प्रत्येक प्रासाद ६२ योजन ऊँचे, ६२ योजन लम्बे, ३१ योजन चौड़े और द्वार आदि से विभूषित हैं ॥३३६-३३७|| प्रतिवर्ष निरन्तर आसाढ़, कातिक और फाल्गुन मास में चतुनिकाय के इन्द्र, देवों एवं देवांगनात्रों के साथ अपने अपने उत्तम बाहनों पर चढ़ कर परम विभूति और परमोत्कृष्ट भक्ति से अष्टमी को नन्दीश्वर द्वीप जाकर सर्व चैत्यालयों में स्थित जिनबिम्बों की पुण्य की भाता सदृश अष्टाह्निकी नाम की महापूजा करते हैं ॥३३८-३४७।। महा महोत्सव पूर्वक सैकड़ों वाद्यों एवं जयजयकार शब्दों के कोलाहल से युक्त, महाविभूति से, गीत, नृत्य और सहस्रों स्तुतियां गाते हुए, स्वर्ण और रत्नों के पड़ों से निकलती हुई निर्मल जल को धारा द्वारा, अन्य देव समूहों के साथ साथ सर्व इन्द्र, आत्म शान्ति के लिए नित्य ही प्रत्येक दिशा में दो दो पहर जिनेन्द्रों की दिव्य प्रतिमानों का सर्व विघ्न नाशक और वाल्याणप्रद महा अभिषेक करते हैं ॥३४१-३४३॥
अब चारों प्रमख इन्द्रों के द्वारा एक ही दिन में चारों दिशानों को पूजन का विधान कहते हैं :---