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दशमोऽधिकारः
अमीषा दूधष्टकूटानां मूर्धस्थरत्नसासु । पल्यकजीबिनो भूत्या नागवेवा वसन्ति च ।।३६०।। तेषामभ्यन्तरे मागे चतुःपूर्वादिदिक्षु च । चत्वारि मरिणकूटानि सन्ति सेव्यानि निर्जरैः ॥३६१।। कूटानां निराजन्ते चत्वारः श्रीजिनालयाः । देवसङ्घकृतनित्यं पूजोत्सवशतादिभिः ।।३६२।। एषां विशतिकूटानामुदयो योजनानि च । शतानि पञ्चमूले स्वास्सेधेन समविस्तरः ।।३६३॥ प्रने व्यासो मतः साद्विशतर्योजनैरिति ।
वर्णनः कुण्डलादिः स्यात् सुरसङ्घोत्सवप्रदः ।।३६४।। ___ अर्थ:-कुण्डलगिरि पर्वत पर पूर्वादि चारों दिशाओं में चार कूट हैं, और चारों विदिशानों में भी रमणीक नार फूट हैं ॥३५८|| इन आठों दिशाओं के मध्य आठ अन्तरालों में पाठ महान् बाट हैं । इस प्रकार पाठ दिशात्रों और पाठों अन्तरालों में कुल सोलह कृट हैं ।१३५६ ॥ इन सोलह कूटों के शिखर पर रत्नों के प्रासाद हैं. जिनमें एक पल्य की आयु वाले नागदेव महाविभूति के साथ रहते हैं । ॥३६०। इन दिशागत कूटों के अभ्यन्तर भाग में पूर्वादि चारों दिशाओं में देवों द्वारा सेव्यमान चार कट हैं। इन कूटों के शिखर पर ( प्रत्येक कूट पर एक ) चार जिनालय हैं, जिनमें देव समूहों के द्वारा नित्य ही सहस्रों पूजा महोत्सव किये जाते हैं ॥३६१-३६२।। ये बीसों वट पांच-पांच सौ योजन ऊचे हैं, इनका मूल विस्तार ५०० योजन और ऊर्ध्व-शिस्त्रर का विस्तार २५० योजन प्रमाण है । जहाँ निस्म देवों के द्वारा अनेक महोत्सव होते हैं ऐसे कुण्डलगिरि का वर्णन है ।।३६३-३६४।।
अब शङ्खवरद्वीप और रुचकद्वीप को अवस्थिति कह कर रुघागिरि के व्यास प्रादि का प्रमारण कहते हैं :--
ततः शखबरद्वीपस्तस्माच्च रुचकाह्वयः । राजतेऽद्रिजिनागारैस्त्रिदशानन्दकारकः ॥३६॥ प्रस्य द्वीपस्य मध्येऽस्ति घलयाकार अजितः। अचलो रुचकामिख्यः पुण्यकर्मनिबन्धनः ।।३६६॥ प्रादौ मध्येऽचलस्याने सर्वत्र समविस्तरः । प्रोक्तश्चतुरशीतिश्च सहस्रयोजनानि च ।।३६७।।