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सिद्धान्तसार दीपक
इत्येकेन दिनेनात्र चतुर्दिग्जिनबेश्मसु । एका स्यान्महत्ती पूजा सम्पूर्णा च सुरेशिनाम् ॥३४४।। पूर्वाशायां जिनर्चानां सौधर्मेन्द्रो महामहम् । अष्ट भेदं सुरैः साधं विव्यानः करोति च ।।३४५।। पश्चिमाशास्थगेहेषु प्रतिमान भित्रिनाम् । विधत्ते परमा पूजामंशानेन्द्रोऽमरावृतः ॥३४६।। दक्षिणाशाप्रदेशस्थ चैत्यालयेषु भक्तितः । कुरते जिनमूर्तीनां चमरेन्द्रो महार्चनम् ॥३४७॥ उत्तराशामहोभागे शक्रो वैरोचनो मुदा । चैत्यालयस्थचत्यानां करोति पूजनं परम् ।।३४८।। इत्यमी प्रत्यहं मख्याश्चत्वारः सुरनायकाः । प्रदक्षिणाविधानेनात्रत्यश्रीजिनधामसु ॥३४६।। निजगद्द वदेवोभिः समं पूजामहोत्सबम् ।
कर्वते जिनमूर्तीना पूर्णमास्यन्तमञ्जसा 11३५०॥ अर्थ:-इस प्रकार नन्दोश्वर द्वीप स्थित जिन चैत्यालयों में एक ही दिन में चारों दिशानों में देवेन्द्र एक महान पूजा सम्पूर्ण करते हैं 11३४४।। अन्य देव समूहों के साथ साथ सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र पूर्वदिशा में स्थित जिनप्रतिमाओं को प्रष्ट प्रकार की महामह पूजा दिव्य द्रव्य के द्वारा करता है ।।३४५।। अनेक देवों से प्रावृत ऐशानेन्द्र पश्चिमदिशागत जिनालयों में स्थित जिनेन्द्र बिम्बों की परम पुनीत पूजा करता है ॥३४६।। दक्षिण दिशागत क्षेत्र के चैत्यालयों में स्थित जिनबिम्बों की महामह पूजा चमरेन्द्र महान् भक्तिभाव से करता है ।। ३४७ ।। इसी प्रकार उत्तर दिशा स्थित चैत्यालयों के जिन बिम्बों की परमोत्कृष्ट पूजा वैरोचन इन्द्र अति प्रमोद पूर्वक करता है ॥३४८।। इरा उपर्युक्त विधि के अनुसार ये चारों प्रधान इन्द्र श्रेलोक्य स्थित देव देवियों के साथ प्रदक्षिणा क्रम मे मन्दीश्वरद्रीपस्थ जिमचैत्यालयों के जिनबिम्बों को पूजा, महामहोसत्र के साथ पूर्णिमा पर्यन्त करते हैं । अर्थात् पूर्वदिशा में सौधर्मेन्द्र, दक्षिण में ऐशानेन्द्र, पश्चिम में चमरेन्द्र और उत्तर में वैरोचन इन्द्र अपने सुरसमुह के साथ दो-दो पहर पूजन करते हैं। दोपहर बाद सौधर्मेन्द्र दक्षिण में प्रा जाते हैं, तब दक्षिगा वाले देव पश्चिम में और पश्चिम वाले उत्तर में तथा उत्तर दिशा वाले देव पूर्व में पाकर ऐन्द्रध्वज आदि महापूजा करते हैं । यह क्रम एक दिन का है, इम प्रकार अष्टमी से प्रारम्भ कर पूणिमा पर्यन्त देवगरण इसी क्रम से महामहोत्सव के साथ महामह प्रादि पूजन करते हैं ।।३४६-३५०।।