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सिद्धान्तसार दोपक भवेन्मध्यान्तरं सर्व वापिकानां पृथक पृथक् । लक्षौ द्वौ च यो विशति सहस्राः शतानि षट् ॥३१८॥ तथैकषष्टिरित्यङ्कानां च योजनसंख्यया ।
ताता षोडशवापोनां स्युर्बाह्य त्यान्तराणि वै ॥३१॥ अर्थ:-पूर्व दिशा स्थित अजनगिरि की पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में क्रमशः नन्दा, नन्दवतो, नन्दोत्तरा और नन्दिषेरणा नाम की चार वापिकाएँ स्थित हैं ।।३०८॥ प्रथम वापिका सौधर्मेन्द्र के भोग्य है, दूसरी ऐशानेन्द्र के, तीसरी चमरेन्द्र के और चतुर्थ वापिका वैरोचन के भोग्य है, ।।३०६।। दक्षिणदिश स्थित प्रजनगिरि को पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः अरजा, बिरजा, गतशोका और सीतशोका नाम की चार वापिकाए हैं, इनमें प्रथम वापिका सौधर्मेन्द्र के लोकपालों में से वरुण के भोग्य, द्वितीय वापिका यम के, तृतीय वापिका सोम के और चतुर्थ वापिका वैश्रवण लोकगल के भोग्य है ।।३१०३११।। पश्चिम दिशागत अजनगिरि की पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः विजया, वंजयन्ती, जयन्ती
और अपराजिता नाम की चार वापिकाएं हैं, इनमें प्रथम वापिका वेणुदेव के, द्वितीय वेगुताल के तृतीय धरणदेव के और चतुर्थ बारिका भूतानन्द देव के भोग्य है ।। ३१२-३१३ ।। उत्तर दिशा गत चतुर्थ अजनगिरि की पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः रम्या, रमणी. सुप्रभा और सर्वतोभद्र नाम को वापिकाएं हैं, इनमें प्रथम वापिका ऐशानेन्द्र के लोकपालों में से बरुण द्वारा भोग्य है. द्वितीय वापिका यम के, तृतीय सोम के और चतुर्थ वापिका कुबेर लोकपाल के द्वारा भोग्य है ।। ३ १४-३१५॥ इन सोलह वापियों में से प्रत्येक का आदि ( अभ्यन्तर ) अन्तर ६५५०४५ योजन सर्व वापियों का पृथक् पृथक् मध्य अन्तर १०४६० योजन और इसी प्रकार सर्व वापियों का भिन्न भिन्न बाह्य अन्तर २२३६६१ योजन प्रमाग है ।।३१६-३१६॥ अब दधिमुख पर्वतों की संख्या, उनका प्रवस्थान, वर्ण और व्यास प्रादि कहते हैं :
• यापीनां मध्यभूदेशेषु सन्त्यासां दधिप्रभाः । रम्या दधिमुखाभिख्याः श्वेताः षोडशभूधराः ।।३२०॥ पटहाकारिणस्तुङ्गा विस्तृताश्च दशप्रमः ।
सहस्रयोजनोजनसहनायगाहिनः ।।३२१॥ अर्थ:- इन सब वापियों के मध्य भूप्रदेशपर दधि की प्रभा युक्त, रमणीक और श्वेतवर्ण वाले दधिनुखनाम के १६ पर्वत हैं । इनका प्राकार ढोल सदृश, ऊँचाई दशहजार योजन, चौड़ाई दशहजार योजन और अवगाह (नीव) १.०० योजन प्रमागा है 11३२०-३२१॥