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सिद्धान्तसार दीपक
विभङ्गा का मध्य आयाम ५२८६८०३३ योजन होता है, और इसमें पुनः वृद्धि का प्रमाण मिला देने पर विभंगा का अन्त आयाम ५२६६०६३ ई योजन- प्रमाण हो जाता है ।। १६८ - १६६ ।।
अब कुण्डों, विजयार्थ पर्वतों, गंगादि ६४ नदियों एवं भद्रशालवनादिकों को वेदियों का विस्तार आदि कहते हैं :---
विभङ्गोत्पत्तिकण्डानि साधीद्वशतयोजनः । विस्तीर्णानि च पूर्वोक्ता वगाहसदृशान्यपि ॥ १७० ॥ विजयार्याश्चतुस्त्रिशत्प्रागुक्तोष तिसम्मिताः । शतयोजनविस्तीर्णा द्वीपेऽद्ध ऽस्मिन्निरूपिताः ।। १७१ ।।
गङ्गायाः क्षुल्लकानद्यश्चतुःषष्टिप्रमाः शुभाः । प्रासरिद्विगुणन्यासाः प्राग्द्यागाहसन्निभाः ॥ १७२ ॥ गङ्गाद्युत्पत्तिकुण्डानि पादाग्रशतयोजनः । विस्तृतानि चतुःषष्टिपूर्वागायुतानि च ॥१७३॥ श्रीशद्वयोन्नताः पञ्चशतचाप सुविस्तृताः । भशालवनादीनां सत्यष्टौवेदिकाः शुभाः ॥ १७४॥
अर्थः- विभंगा नदियों को उत्पत्ति जिन कुण्डों से होती है, उन कुण्डों का व्यास २५० योजन तथा अवगाह जम्बुद्वीपस्थ कुण्डों के अवगाह सदृश है। प्रधं द्वीप में श्रर्थात् पूर्वघातको खण्ड में पूर्व कथित ( २५ योजन) उत्सेध वाले और १०० योजन विस्तृत चौंतीस विजयार्ध पर्वत हैं ॥ १७१ ॥ | जम्बूद्वीपस्थ विदेह क्षेत्र गत गंगा आदि नदियों के अवगाह सहा प्रवगाह वालीं और वहाँ की नदियों के व्यास से दूने व्यास वाली गंगा, सिन्धु, रोहित और रोहितास्या नाम की १४ छोटी नदियाँ हैं ।। १७२ ।। इन गंगा श्रादि ६४ नदियों की उत्पत्ति के स्थान स्वरूप वहाँ ६४ गंगादि कूट हैं, जो १२५ योजन विस्तृत और जम्बूद्वीपस्थ विदेह के कुण्डों की अवगाहना के सदृश श्रवगाहना वाले हैं ॥१७३॥ भद्रशाद आदि वनों की दो कोस ऊँची और ५०० धनुष चौड़ी प्रत्यन्त रमणीय आठ वेदियाँ हैं ।। १७४।।
इदानों चतुर्लक्षयोजन प्रमो विदेहस्य विष्कम्भो यस्तस्य मेर्वादि विभागः संख्या कथ्यते :
मेरो : व्यासः नवसहस्रचतुः शतयोजनानि । पूर्वापर भद्रगालवनयोद्वयोः पिण्डीकृतविस्तार: द्विलक्षपञ्चदश सहस्र सप्तशताष्ट पञ्चाशद्योजनानि षोडशदेशानामेकत्रीकृतो व्यासः एकलक्ष त्रिपञ्चाशत्सहस्र षट्ातचतुःपञ्चाशद्योजनानि । अष्टवक्षारपर्वतानां पिण्डितो विस्तारः प्रष्टसहस्रयोजनानि ।