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सिद्धांतसार दीपक
की परिवार नदियाँ ( २८०००x१२ ) - ३३६००० और बत्ती विदेह विदुरका और रक्तोदा इन ६४ की परिवार नदियां ( १४००० X ६४ ) = ८६६००० हैं । इन सम्पूर्ण मूल एवं परिवार नदियों का कुल योग ( ४+४+४+२+१२+६४ + ५६०००+ ११२०००+२२४०००+ १६८००० + ३३६०००+ ८१६००० - १७९२०९० है । जबकि एक मेरु सम्बन्धी सम्पूर्ण प्रमुख नदियाँ १७६२०६०] हैं, तब पंचमेरु सम्बन्धी (१७६२०१०४५ ) = ८६६०४५० नदियों का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२५२-२५३ ।। श्रढ़ाई द्वीप में तीस भोगभूमियाँ, पंच भरत, पंच ऐरावत और पंच विदेह इस प्रकार १५ कर्म भूमियाँ तथा सीता-सीतोदा के मध्य स्थित १०० द्रह है। पंच मेरु सम्बन्धी ३० कुलाचलों के ऊपर पद्म श्रादि ३० सरोवर हैं, इस प्रकार ढ़ाई द्वीप में कुल ( १०० + ३० ) = १३० सरोबर हैं । गंगादि ( १४४५ ) = ७० महानदियों का भूमि पर जहाँ पतन होता है, वहाँ कुण्ड हैं, श्रतः ७० कुण्ड ये, ( १२×५ ) = ६० विभंगा नदियों की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाले कुण्ड ६० श्रोर गंगादि क्षुल्लक ( ६४५५ ) = ३२० नदियों की उत्पत्ति के ३२० कुण्ड हैं। इस प्रकार ढ़ाई द्वीप में कुल कुण्डों की संख्या ( ७०+ ६० + ३२० ) = ४५० है । एक मेरु सम्बन्धी ३२ विदेह + १ भरत + १ ऐरावत क्षेत्र == ३४ देश हैं, इसलिये पंच मेरु सम्बन्धी ( ३४४५ ) = १७० देश हैं और १७० ही नगरियाँ हैं 1 ।।२५४ - २५७।। पंच मेरु सम्बन्धी दश कुरु क्षेत्रों में जम्बू ग्रादि १० हो अनादि निधन वृक्ष हैं। इसी प्रकार वैदिकाएँ आदि भी जानना चाहिए। जैसे - जम्बूद्वीप में एक मेरु सम्बन्धी ( ३११ पर्वतों की ३११ वेदियाँ + ६० कुण्डों को ९० वेदियाँ + २६ सरोवरों की २६ वेदियाँ + और १७६२०६० नदियों के दोनों तटों की ३५८४१८० वेदियाँ ) = ३५८४६०७ वेदियाँ हैं, इसलिये पंच मेरु सम्बन्धी समस्त वेदियों का कुल योग ( ३५८४६०७४ ३ ) - १७६२३०३५ प्राप्त होता है । इस प्रकार यह अढ़ाई द्वीप के कुछ पर्वतों आदि का एकत्रित योग कहा गया है, श्रन्य का भी इसी प्रकार जानना चाहिये ।। २५८ || अब समस्त (पाँचों विदेहस्थ श्रायं खण्डों को धर्म को आदि लेकर अन्य अभ्य विशेषताओं का प्रज्ञापन करते हैं।
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षष्टचग्रशत देशस्थार्थखण्डेषु जिनोदिताः ।
श्रावतिभिधा धर्मोऽक्षयः प्रवर्तते ।। २५६ ।। हानिवृद्धघादिदूरस्थो ह्यहिंसालक्षणो महान् । स्वमुक्तिजनको नान्योऽङ्गिघ्नो बेदादिजल्पितः ॥ २६०॥ अहंन्तश्च गणाधीशाः सूरिपाठकसाधवः । नृदेवसङ्घवन्यार्याः स्थविराश्च प्रवर्तकाः ।। २६१ ॥ धर्मोपदेशदातारो विहरन्ति निरन्तरम् । धर्मप्रवृत्तये केवलिनो न च कुलिङ्गितः || २६२||