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दशमोऽधिकारः
[ ३४१ अब धातकीखण्ड के पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण और इस क्षेत्र से रहित द्वीप को तीनों परिधियों का प्रमाण कहते हैं :--
एकलक्षसहस्राण्यष्टसप्ततिः शताष्टकम् । योजनानां द्विचत्वारिशच्चेति संख्यया मतम् ॥१२॥ तत् क्षेत्र पर्वतै रुखं शेषं पर्वत जितम् । विधापरिधिभेवेन क्षेत्रं त्रिविधमुच्यते ।।१२६॥ चतुर्दशव लक्षाणि सहस्र शतद्वयम् । सप्ताग्रानवतिश्चेति योजनानां हि संख्यया ॥१३०॥ जघन्यपरि धेर्जेयं क्षोत्रं सर्वाचलातिगम् । षड्विंशतिश्च लक्षाणि सप्तषष्टिसहस्रकाः ।।१३१॥ सप्तोत्तरशते दू चेत्ययोजनविस्तरः । मध्यमापरिधेः क्षेत्रं भवेत्पर्वतदूरगम् ।।१३२।। लक्षा एकोनचत्वारिंशद् द्वात्रिशत्सहस्रकाः । तथा शतकमेकोविशतियोजनानि च ॥१३३॥ इत्येवं पर्वतातीतं क्षेत्रं सर्व मतं जिनः ।
उत्कृष्टपरिधेर्धातकीखण्डस्यास्य पिण्डितम् ।।१३४।। अर्थ:-धातकोखण्ड में पर्वतों से अविरुद्ध क्षेत्र का प्रभारण एक लाख अद्वत्तर हजार पाठ सो ब्यालीस (१७५८४२) योजन है । (इस क्षेत्र को प्राप्त करने का विधान त्रिलोकसार गाथा ६२८ की टीका से ज्ञातव्य है । ) इस क्षेत्र के अतिरिक्त सर्व क्षेत्र, पर्वत क्षेत्र से रहित है, जो तीन प्रकार की परिधियों के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ।। १२८-१२६।। लवणोदधि के समीप जघन्य परिधि का पर्वात रहित क्षेत्र अर्थात् पर्वत रहित जघन्य परिधि का प्रमाण ( १५८११३६-१७८८४२ )= १४०२२९७ योजन, पर्गत रहित मध्यम परिधि का प्रमारा (२८४६०५०-१७८८४२)=२६६७२०७ योजन और पर्वत रहित बाह्य ( उत्कृष्ट) परिधि का प्रमाण (४११०६६१-१७८८४२) ३६३२११६ योजन है । इस प्रकार जिनेन्द्र देव के द्वारा पति रहित तीनों परिधियों का प्रमाण कहा गया है ।। १३०-१३४॥ अब धातकोखण्ड स्थित क्षेत्रों एवं पर्वतों का विष्कम्भ कहते हैं :--
क्षेत्राच्चतुर्गुणं क्षेत्रनं विदेहान्तमिह स्मृतम् । ततश्चतुर्गुणोनान्युत्तरक्षेत्रत्रयाणि च ॥१३५।।