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दामोऽधिकारः
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जीवों में काललब्धि के प्रभाव से जो जोव सम्यग्दर्शनसह कर लेते हैं, वे सौधर्मेशान कल्प में उत्पन्न होते हैं, वे सम्यक्त्वरूपी पुण्य के प्रभाव से अन्यत्र ( भवन त्रिक में ) उत्पन्न नहीं होते हैं ।। ६३-६४|| कुभोगभूमियों में कौन जीव उत्पन्न होते हैं ? उसे कहते हैं
येsलिङ्ग प्रपंचत्वादिकारिणः कुमार्गगाः । अनालोचनपूर्व ये तपोवृत्तं चरन्ति च ॥ ६५॥ परेषां ये विवाहादिपापानुमतिकारिणः । ज्योतिष्क मन्त्र तन्त्रादिवैद्यकर्मोपजीविनः ॥ ६६ ॥ पंचाग्न्यादितपोनिष्ठा ये हगादिविराधिनः । कुशानकुतपोयुक्ता मौनहीनान्न भोजिनः ॥६७॥ कुकुलेषु च दुर्भातकादिद्युतेषु वा । श्राहारग्रहणोद्युक्ताः सदोषाशन सेविनः ॥ ६८ ॥ इत्यादिशिथिलाचारा मायाविनोऽक्षलम्पटाः । शुद्धिहीनाश्च ते सर्वे स्युः कुपात्राणि लिङ्गिनः ॥६६॥ तेभ्यः कुपात्रलिङ्गिभ्यो दानं ददति ये शठाः । ते कुपुण्यांशतो जन्म लभन्तेऽत्र कुभूमिषु ||१०० ॥ जघन्यभोगभूमौ घामृत्युत्पत्यादिका स्थितिः ।
सा ज्ञेया कुमनुष्याणां कुत्सिता भोगभूमिषु ॥ १०१ ॥
अर्थः- जो कुमार्गगामी जीव जिनलिङ्ग को धारण करके प्रपञ्च आदि करते हैं, आलोचना किये बिना ही व्रतों एवं तपों का श्राचरण करते हैं. जो विवाह यादि की एवं और भी अन्य सावद्य कार्यों की अनुमति देते हैं। ज्योतिष, मन्त्र तन्त्र एवं वैद्यक प्रादि कार्यों द्वारा उपजीविका श्रर्थात् आहार आदि प्राप्त करते हैं। पंचाग्नि प्रादि मिध्या तपों में निष्ठा रखते हैं । जो सम्यग्दर्शन की विराधना करते हैं, कुज्ञान और कुतप से युक्त हैं, मौन छोड़कर भोजन करते हैं । निन्द्य कुलों में, दुष्ट स्वभाव (दुर्भावना) से युक्त एवं सुतक प्रादि से युक्त गृहों में आहार ग्रहण करते हैं । ४६ दोषों को न टालते हुए सदोष आहार ग्रहण करते हैं. घनेक प्रकार के शिथिलाचार से युक्त हैं, मायावी हैं, इन्द्रिय लम्पट हैं और बाह्याभ्यन्तर शुद्धता से रहित हैं, वे सब लिंगी कुपात्र हैं और मर कर कुभोग भूमियों में जन्म लेते हैं, और जो मूर्व जन ऐसे कुपात्रों एवं लिंगधारियों को दान देते हैं वे सब खोटे पुण्य अंशों से कुभोगभूमियों में जन्म लेते हैं ।। ६५- १०० ।।
नोट :- यही विषय त्रिलोकसार गाथा ६२२ से ६२४, तिलोयपति अधिकार चतुर्थ गाथा २५०३ से २५११, जम्बूद्वीप पति सर्ग १० गाया ५८ से ६६ में द्रव्य है ।