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सिद्धान्तसार दोपक
एकोषका गुहायां च वसन्ति कान्तया समम् । मधुरं मृण्मयाहारमाहरन्ति सुखावहम् ॥१॥
समस्त्रोदुसाः शक्षाधिकाशिनः । भुञ्जन्ति तृप्तये सर्वे पत्रपुष्पफलानि च ॥१२॥ पायुषो सेऽप्यसून मुक्त्वा विश्वे मन्दकपायिणः । ज्योतिर्भावनभौमानां ते जायन्ते सुवेरमसु ॥३॥ तेषु ये प्राप्तसम्यक्त्वाःकाललब्ध्या व्रजन्ति ते ।
सौधर्मशानकन्पी च मान्यत्र दृष्टिपुण्यतः ||६४॥ अर्थः-लवण समुद्र की पूर्वादि चारों दिशाओं के द्वीपों में क्रम से एकोरुक, सशृङ्ग अर्थात् वैषाणिक, लांगुलिक और प्रभाषक ये चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं ॥५३॥ चारों विदिशानों के चार द्वीपों में कम से शशकर्णा, शकुलिकर्ण, कर्णप्रावरण और लम्बकणं ये चार प्रकार के कुमानुष रहते है ।।४।। पाठ अन्तरालों को आठ दिशामों में स्थित द्वीपों में कम से सिंह, अश्व, भैंसा, उल्लू, व्याघ्न, सूकर, गाय और बन्दर सदृश मुख वाले कुमानुष रहते हैं ।।८।। हिमवान् पर्वत और विजयाई पर्वत के पूर्व पश्चिम भाग में मछलीमुख, कालमुख, मेघमुख और विद्युत्मुख वाले कुमनुष्य रहते हैं अर्थात् पूर्व में मछलीमुख, पश्चिम में कालमुख, पूर्व में मेघमुख और पश्चिम में विद्युत्मुख वाले मनुष्य रहते हैं ॥८६॥ विजया और शिखरी पर्वत के दोनों पाव भागों में क्रमशः गज, दर्पण, मेष और अश्वमख अर्थात् पूर्व में गजमुख, पश्चिम में दर्पणमुख, पूर्व में मेषमुख और पश्चिम में प्रश्वमुम्व वाले कुमनुष्य निवास करते हैं ।।८७। इन समस्त द्वीपों में स्त्री पुरुष दोनों का युगल रूप से गर्भ जन्म होता है, ये रोग और क्लेश प्रादि से रहित होते हैं तथा ४६ दिनों में पूर्ण यौवन प्रार कर लेते हैं। इनको प्रायु एक पल्य को, शरीर पांच वर्षों का और शरीर की ऊँचाई एक कोश की होती है ।।८५-८६विविध प्रकार के शरीराकार और मुखाकार को धारण करने वाले ये कुमनुष्य पूर्व जन्म में ( अपने व्रतों में लगे हुये दोषों की ) निन्दा गहरे रहित व्रत तप पालन करने से उत्पन्न नीच पुण्य के योग से इन कुभोग भूमियों में निरन्तर नीच भोग भोगते हैं ।।६०॥ चारों दिशात्रों में निवास करने वाले एकोरुक मादि मनुष्य अपनो स्त्रियों के साथ गुफरों में रहते हैं, और सुख प्रदान करने वाली प्रति मधुर मिट्टी का आहार करते हैं ॥११॥ शेष कुमनुष्य अपने सदृश आकार वालो अपनी अपनी स्त्रियों के साथ वृक्षों के मूल भाग में निवास करते हैं, और क्षुषा शान्ति के लिये सर्व प्रकार के पत्र, पुष्प और फल खाते हैं । ॥१२॥ ये सब भोग कुभूमिज जीव मन्दकषायी होते हैं, और प्रायु के अन्त में प्राणों को छोड़ कर भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देवों के भवनों आदि में उत्पन्न होते हैं। इन कुभोगभूमिज