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दशमोऽधकार :
योजनानां त्रयस्त्रिशदधिकत्रिशतानि च । योजनस्य तृतीयांश इति संख्यादिनं प्रति ॥४१॥ वृद्धिः परिज्ञेया या पक्षान्ति दिए । पूर्णमास्यां महावीचेद्विलक्षयोजन प्रमः ||४२ ॥ विस्तारो भूतले सूनि सहस्रदशसम्मितः । उत्सेधो योजनानां च सहस्रषोडशप्रमः ||४३|
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अर्थः- अमावस्या को समभूमि से जल को ऊँचाई ११००० योजन रहती है यह लवण समुद्र जल का जघन्य उत्सेध है। इस दिन अर्थात् १९००० ऊँचाई वाले जल का व्यास दो लाख योजन और सुरज व्यास अर्थात् शिखर पर जल की चौड़ाई का प्रमाण ६६३५० योजन है || ३६-४०||
नोट :- त्रिलोकसार गा० ६०० को टीका में मुख व्यास का प्रमाण ६६३७५ योजन कहा है । मुख व्पास ६६३७५ योजन कैसे हुआ ? इसे त्रैराशिक से सिद्ध भी किया गया है।
शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन ३३३३ योजन की वृद्धि जल लहरों में होती है, इस प्रकार शुक्ल पक्ष के अन्त में पूर्णमासी को लवण समुद्र के जलराशि की ऊँचाई १६००० योजन हो जाती है। उस दिन भूमितल पर जल का विस्तार दो लाख योजन और शिखर पर जल का व्यास अर्थात् चौड़ाई १०००० योजन रहती है ॥४१-४३॥
विशेष ::- लवर समुद्र का जल मुरजाकार है। अर्थात् समुद्र के मध्य में जल हमेशा समभूमि से ११००० योजन ऊपर तक राशि के समान स्थित रहता है । पातालों के मध्यम त्रिभागों में नीचे पवन और ऊपर जल है। शुक्ल पक्ष प्रत्येक दिन जल के स्थान पर पवन होता जाता है, इससे जल कल्लोलों में प्रतिदिन ३३३३ योजन को वृद्धि होती है. इस प्रकार बढ़ते हुए पूर्णमासी को जल राशि की वृद्धि ( ३३३३ × १५ ) = | = ५००० योजन हो जाती है। अर्थात् जल राशि की ऊंचाई ११००० योजन तो थी हो, ५००० योजन की वृद्धि हो गई, ग्रतः पूर्णमासी को जल राशि की ऊँचाई ( ११००० + ५००० } = १६००० योजन प्राप्त होती है। कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन पवन के स्थान पर जल होता जाता है, अतः जलराशि में प्रतिदिन ३३३३ योजन की हानि होते हुये अमावस्या को जलराशि की ऊँचाई (१६००० - ५००० ) ११००० योजन प्रमाण रह जाती हैं ।
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अब तीनों प्रकार के पातालों के पारस्परिक अन्तर का प्रमाण दर्शाते हैं
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नवलक्षाः सहस्राण्पष्टचत्वारिंशदेव च ।
षट्शतानिशीतिः किलेति योजनसंख्यया ॥ ४४ ॥