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नवमोऽधिकारः
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एतेषां पाणिपात्रे सदनासं प्रदत्तमाधिमम् । स्वं गृहाण स्वशुन्कायेत्यादेशं ववभूकारणम् ॥२४॥ श्रुत्वा स मूढधीमंन्त्री सर्व तथाकरोत्तदा । सदुपद्रवतोऽशासन व्याकुला मुनयो नृपात् ॥२८५।। उपसर्ग विदित्वा तं मनीनामसुराधिपः । चतुर्मुखं जघानाशु जिनशासनरक्षकः ॥२६॥ ततो मृत्वा स पापात्मा फल्को पापविपाकतः । विश्वदुःखाकरीभूतं प्रथमं नरकं गतः ॥२७॥ तदाशु तवयात्तस्य सुतो जध्वं जपाह्वयः । जिनशासनमाहात्म्यं प्रत्यक्ष वीक्ष्य तस्कृतम् ॥२८८।। सम्यक्त्यरत्नमादाय काललब्ध्यासुशिनम् । स्वसैन्यस्वजनाद्यश्च जमाम शरणं सह ।।२८६।। अहो | पुण्याधकीणां शुभाशुभं फलं महत् ।
इहैव दृश्यते साक्षात्का वार्ता परजन्मनि ।।२६०॥ अर्थ :---उस चतुर्मुख कल्की ने अपने योग्य भूमि को जीत कर प्रधानमन्त्री को इस प्रकार आदेश दिया कि इस भूतल पर निर्ग्रन्थ मुनि हमारे वश में नहीं हैं अतः उनके पाणिपात्र में दिया हुआ प्रथम ग्रास तुम ग्रहण करो। नरकगति के कारण भूत मादेश को सुन कर उस मुहमति मन्त्री ने सर्व कार्य उसी आदेशानुसार किया, उस समय उस उपद्रव से उस क्षेत्र में रहने वाले समस्त मुनिजन राजा से बहुत व्याकुल हो गये ( इस राजा के द्वारा जनधर्म नाश हो रहा है इसलिए मुनिजन व्याकुल हुए) ।।२८३-२८५।। मुनियों के उपसर्ग को जानकर जिनशासन के रक्षक असुरेन्द्र ने शीघ्र ही उस चतुर्मुख राजा को मार डाला ।।२८६॥ वह पापात्मा कल्की मर कर पापोदय से सम्पूर्ण दुःखों के प्राकर स्वरूप प्रथम नरक गया ॥२८५।। उसी समय कस्को का पुत्र जयध्वज और स्त्री चेलका असुरेन्द्र के भय से और जनधर्म कृत जिनशासन के माहात्म्य को प्रत्यक्ष देख कर तथा काललब्धि के प्रभाव से सम्यक्त्व रूपी महारल को ग्रहण करता हुआ शोन छी अपनी सेना एवं स्वजन परिजनों के साथ असुरेन्द्र की शरण में गया ।।२८८-२८६।। अहो ! पुण्य करने वालों के महान् शुभ फल और पाप करने वालों के महान अशुभफल साक्षात् यहां ही दिखाई दे जाते हैं अगले जन्म की तो क्या बात ! ॥२६॥
प्रब अन्तिम कल्की का स्वरूप और उसके कार्यों प्रावि का दिग्दर्शन कराते हैं :