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दशमोऽधिकारः
चूड़ी के आकार को धारण करने वाले श्रसंख्यात द्वीप समुद्रों के अन्त में उपर्युक्त वर्णन से युक्त पृथक् पृथक् प्राकार-कोट हैं ।। १६ ।।
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अब लवण समुद्र की प्रवस्थिति और उसके स्वामी कहते हैं
तत्प्राकारान्तमाश्रित्य वलयाकार भृन्महान् । द्विलक्षयोजनव्यामो नित्योऽस्ति लवरणारवः ||२०||
सत्स्वामि सुस्थिताभिख्यौ देवौ दिव्याङ्गधारिणौ । वायसमुद्रस्य तिष्ठतः परिरक्षकौ ॥२१॥
अर्थः- उस जम्बुद्वीप के कोट के अन्तिम भाग का आश्रय कर अर्थात् कोट से लगा हुआ, चूड़ी के ग्राकार को धारण करने वाला, दो लाख योजन व्यास से युक्त शाश्वत और महान् लवण समुद्र है । इस लवण समुद्र के दिव्य प्रङ्ग को धारण करने वाले सत्स्वामि और सुस्थित नाम के दो परि रक्षक देव वहाँ रहते हैं । २०-२१ ॥ |
अब लवण समुद्र के अभ्यन्तरवतों पातालों के नाम, उनका अवस्थान और संख्या का वर्णन करते हैं। :--
समुद्राभ्यन्तरे पंचनवति प्रमितान्यपि ।
योजनानां सहस्राणि चतुदिक्षु विहाय च ।। २२ ।
स्युः पातालानि चत्वारि महान्ति शाश्वतान्यलम् । पूर्वस्यां दिशि पातालं पश्चिमे वडवामुखम् ||२३|| मवेदक्षिणदिग्भागे कदम्बकसमाह्वयः । उत्तरास्ये दिशाभागे नाम्नास्ति युगकेशरी ॥२४॥ श्रमीषामन्तरेऽत्रैव विदिक्षु मध्यमान्यपि । चत्वारि श्रेणिरूपेण पातालानि भवन्ति च ॥२५॥ एतेषामष्टपातालानामन्तरेषु चाष्टसु । पातालानि जघन्यानि पञ्चविशाधिकं शतम् ॥२६॥ प्रत्येकं तानि सर्वाणि पातालानि भवन्ति च । प्रष्टाधिकसहस्राणि पिण्डितानि जिनागमे ॥ २७॥
अर्थ :- लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में ६५ हजार योजन छोड़ कर अर्थात् तट से ६५००० योजन पानी के भीतर जाकर चारों दिशाओंों में चार महा पाताल हैं, जो शाश्वत हैं। पूर्व दिशा स्थित