________________
सिद्धान्तसार दीपक
तिर्यंचो मानवास्तद्गन्धाकृष्टाश्च निजेच्छया । नाना युगलरूपेण वतिष्यन्ते वृषातिगाः ।।३२२।। ते सर्वे मृण्मयाहारजीविनो वृद्धिसंयुताः।
प्रायुनलहायता मानान्तमा ३२२! अर्थ:---अवसपिणी काल की परिसमाप्ति के अनन्तर ही उत्सपिणी सम्बन्धी अति दुखमा आदि छह काल होंगे, जिनमें उत्पन्न होने वाले जीव उत्सेध, नायु एवं बल आदि के द्वारा क्रम से वृद्धि को प्राप्त होंगे ॥३१॥ अवसर्पिणी के छठवें काल के सदृश उत्सर्पिणो का दुख मादुखमा नाम का प्रथम काल है। अन्तर केवल इतना है कि इस काल में बल, प्राय और विवेक आदि की क्रमशः वृद्धि होती जायगी ।।३१६। इस काल के प्रारम्भ में जगत का सन्ताप नाश करने वाली और सुख प्रदान करने बाली सात सात दिन पर्यन्त उत्तम जल की, दूध की, घी की, इक्षु रस को और अमृत की वर्षा होगी, जिससे पृथ्वी शीतल और सुगन्धित हो जायगी ।।३२०-३२१॥ उस गन्ध से प्राकृष्ट होकर मनुष्य और तिर्यञ्चों के अनेक युगल अपनी इच्छा से उन गुफाओं आदि से निकल कर वृद्धि को प्राप्त होंगे। वे सब जीव उस प्रथम काल के अन्त पर्यन्त धर्म से रहित, मिट्टी मय पाहार से जीवन यापन करने वाले तथा प्रायु, देह के उत्सेध, बल एवं बुद्धि प्रादि से निरन्तर वृद्धिंगत होते रहेंगे 1३३२२-३२३|| प्रब उत्सपिणोकाल सम्बन्धी द्वितीय बुखमा काल का वर्णन करते हैं :
उत्सपिण्यास्ततोऽप्यस्या द्वितीयो दुःषमाभिधः । कालः पञ्चमसादृश्यो भविता क्रमवृद्धिभाक् ॥३२४॥ अन्ते द्वितीयकालस्यावशिष्टे ऽब्दसहस्रके । सत्येते कूलकत्रो भविष्यन्त्यत्र षोडश ।।३२५॥ प्रादिमः कनकाभिख्यो द्वितीयः कनकप्रभः । ततः कनकराजाख्यः कुलकृत् कनकध्वजः ॥३२६।। स्वर्णपुङ्गव संज्ञोऽस्थ नलिनोनलिनप्रभः । ततो नलिन राजाख्या कुलभून्नलिनध्वजः ॥३२७॥ नलिनीपूङ्गवाभिल्यः पवाः पद्मप्रभाभिः । पाराजाह्वयापद्मध्वजश्च पापुङ्गवः ।।३२८।। महापग्न हमे प्रोक्ता भविष्या मनयोऽखिलाः। सूचयिष्यन्ति मुग्धानां कृत्याकृत्याधि देहिनाम् ॥३२६।।