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सिद्धान्तसार दोपक
अव अवशेष तीन कालों में भोगभूमि की रचना कहते हैं
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ततः कालत्रयोऽन्येऽत्र स्थित्यादिवृद्धिसंयुताः । जघन्य मध्यमोत्कृष्टा भोग भूमिभवाः क्रमात् ।। ३५१ ।। प्रागुक्तत्रिक सद्भोगभूमितुल्याः सुखाकराः ।
दशधा कल्पवृक्षादया श्रायास्यन्ति पृथग्विधाः ।। ३५२ ।।
अर्थ :- इस तृतीय काल को परिसमाप्ति के अनन्तर स्थिति मादि की वृद्धि से युक्त तीन काल और होंगे, जिसमें क्रम से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि की रचना होगी । अर्थात् चतुर्थं सुखमादुखमा काल में जघन्य भोगभूमि की, पंचम सुखमा काल में मध्यम की और छठवें सुखमासुखमाकाल मैं उत्कृष्ट भोगभूमि की रचना होगी ।। ३५१ ।। पृथक्-पृथक् दश दश प्रकार के कल्पवृक्षों से युक्त सुख की खान स्वरूप इन तीनों भोगभूमियों में पूर्वोक्त भोगभूमियों के सहश ही रचना होगी ||३५२|| भरतंरावत में कहे हुए इन छह कालों को नियम पूर्वक अन्य क्षेत्रों में जोड़ने के लिए कहते हैं :
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भरत रावतक्षेत्रेषु सर्वेषु द्विपञ्चसु ।
द्विषट्कालाः प्रवर्तन्ते वृद्धिह्रासयुताः सदा ॥। ३५३ ।। विजयार्धन गेष्व म्लेच्छखण्डेषु पञ्चसु । चतुर्थकाल एवास्ति शाश्वतो निरुपद्रवः || ३५४।। किन्तु चतुर्थकालस्य यदा स्याद् भरतादिषु । श्रायुःकाय सुखादीनां वृद्धिह्रासश्च जन्मिनाम् ।।३५५।। तदा तेन समः कालो वृद्धिहासतो भवेत् । रूप्याद्रिम्लेक्षखण्डेषु शेषकालेषु न क्वचित् ।। ३५६॥ पूर्वापर विदेहेषु द्विप प्रवर्तते ।
चतुर्थकाल एवैको मोक्षमार्ग प्रवर्तकः ।। ३५७ ।।
देवोत्तरकुरुष्वेव द्विपञ्चभोगभूमिषु ।
दक्षिणोत्तरयो मेरोः प्रथमः काल ऊर्जितः ।। ३५८ ।।
हरिरम्यकवर्षेषु मध्यमभोगभूमिषु ।
बुद्धिहासातिगः कालो द्वितीयो मध्यमो मतः ।। ३५६ ॥
हैमवताष्य हैरण्यवत क्षेत्र द्विपञ्चसु ।
तृतीयः शाश्वतः कालो जघन्यभोगभूमिषु || ३६०||