________________
३१० ]
सिद्धान्तसार दोपक
से तदात्युष्णसंतप्ता भ्रमिष्यन्ति दिशोऽखिलाः । मूर्द्धायास्यन्ति दुःखार्ता यमान्तं चाप्यनेकशः ।। ३१० ॥ विषयापिरेः सिधुनङ्गः सरितस्तवा | युग्मानि बहुजीवानां द्विसप्ततिमितान्यपि ॥ ३११ ॥ बिलादिषु वगाधीशा नेष्यन्ति कृपया स्वयम् ।
तथा
श्रर्थः - दुखमा नामक पंचम काल की समाप्ति के बाद मात्र एक दु:ख के सागर स्वरूप प्रतिदुखमा नाम के छठवें काल का प्रारम्भ होगा। इसको स्थिति पंचम काल के सदृश २१००० वर्ष की ही होगी । यह काल धर्म और सुख से रहित समस्त अनिष्टों के खान स्वरूप और पापी जीवों के समुदाय व्याप्त होगा || ३०३ || इस काल के प्रारम्भ में बन्दरों की उपमा को धारण करने वाले मनुष्यों के शरीरों का वर्णं धूमू के सश, ऊंचाई दो हाथ प्रमाण और उत्कृष्ट श्रायु बीस वर्ष की होगी, ये सब नग्न ही रहेंगे। प्रतिदिन अनेकों बार मांस आदि का भोजन करेंगे, बिलों आदि में निवास करेंगे, दुष्ट प्रकृति के होंगे और नरक एवं तिर्यञ्च इन दोनों गतियों से आकर यहाँ उत्पन्न होंगे ॥१३०४- ३०५|| अत्यन्त दुराचारी, पापी, दुःख भोगने वाले, काम वासना से अन्ध माता प्रादि से भी व्यभि चार करने वाले तथा मरण कर नरक और तिर्यञ्च इन दोनों गतियों में जन्म लेने वाले होंगे ।। ३०६ || इस काल में मेघ प्रत्यन्त अशुभ एवं अल्प जल देने वाले होंगे। पृथ्वी स्वाद एवं सार युक्त वृक्षों से रहित एवं पुरुष स्त्री निराश्रय रहेंगे || ३०७|| काल के अन्त में मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ और श्रायु सोलह वर्ष प्रमाण होगी । मनुष्य कुत्सित रूप वाले एवं श्रीत उष्ण को बाबाओं से पीड़ित होंगे ॥ ३०८ ॥ इस अतिदुखमा काल के अन्त में जब कुछ दिन श्रवशेष रहेंगे, तब यहाँ को पृथ्वी फट कर सम्पूर्ण जल का शोषण कर लेगी, तब वे सभी जीव प्रति उष्णता से सन्तप्त होते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में परिभ्रमण करेंगे, और उनमें से दुःख के कारण श्रनेक जीव तो मूचित हो जाते हैं भौर अनेक मरण को प्राप्त हो जाते हैं ।। ३१०। उस समय कृपावन्त विद्याधर बहत्तर कुलों में उत्पन्न जीवों के बहत्तर युगलों को विजयार्ध पर्वत की गुफाओं में, गङ्गा सिन्धु नदियों की वेदियों में श्रीर बिलों में ले जाकर वहां रख देते हैं ।। ३११ - ३१२ ।।
नोट:- ३१२ श्लोक के दो चरणों का अर्थ ऊपर किया गया है, शेष दो चरणों का आगे लिखा जायगा ।
अब दुहियों के नाम, उनका फल और जघन्य श्रायु श्रादि का कथन करते हैं :
1
सावर्ताऽनिल ष्टिः संत्याम्बुवृष्टिरञ्जसा ।। ३१२॥