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नवमोऽधिकारः
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प्रतिक्षाराम्बुवृष्टिश्च विषवृष्टिः सुदुःसहा । अग्निवृष्टी रजोवृष्टि मवृष्टिर्भविष्यति ॥३१३॥ सप्तसप्तदिनान्युच्च विश्वाङ्गिक्षयकारिणी । तन् वष्टिभिरधोभागे योजनान्तं महीतलम् ॥३१४॥ भस्मसाद् भविता तूनं जीयानामजसा क्षयः । इत्याहुर-वसपिण्याः स्वरूपं सकलं जिनाः ॥३१॥ प्रादौ द्वितीयकालादीनामुत्कृष्टाश्चये मताः । प्रायुरुत्सेधशर्माद्या प्राणां भोगशालिनाम् ॥३१६।। अन्ते प्रथमकालादिषु जघन्यादिषु तेऽखिलाः।
ज्ञातव्या अवसपिण्याः षट् कालानामिति स्थितिः ॥३१७॥ अर्था:- छठवें काल के अन्त में सर्व प्रथम सावतं नाम की बायु चलेगी, पश्चात् अत्यन्त शोतल जल की, पश्चात् प्रतिक्षार जल की और इसके बाद अत्यन्त दुस्सह विष की वृष्टि होगी। इसके पश्चात् सात सात दिन पर्यन्त सर्व जीवों का नाश करने वाली अग्नि घृष्टि, धूलि वृष्टि और धूम की वृष्टि होगी। इन दुर्वष्टियों से पृथ्वी, नोचे एक योजन पर्यन्त भस्म हो जावेगी, और नियम से सर्व जीवों का नाश हो जायगा । इस प्रकार सभी जिनेन्द्रों ने अवसपिणी काल का स्वरूप कहा है ।।३१२ ( के दो चरण) ३१५॥ द्वितीय आदि कालों के प्रारम्भ में भोगभूमिज मनुष्यों को जो उत्कृष्ट प्रायु, उत्सेध एवं सुख आदि पूर्व में कहा गया है, वही सब प्रथम मादि कालों के अन्त में जघन्य रूप से जानना चाहिए। अर्थात् द्वितीय काल की आदि में जो उत्कृष्ट प्रायु आदि कही है, वह प्रथम काल के अन्त की जघन्य है। इस प्रकार अवसर्पिणी काल सम्बन्धी छह कालों को अवस्थिति जानना चाहिए ॥३१६-३१७॥ अब उत्सपिणी काल के प्रथम काल का वर्णन करते हैं :--
ततोऽलिदःषमाद्याः षटकाला वृद्धियुताः क्रमात । उत्सपिण्यो भविष्यन्त्यलोत्सेधार्बलादिभिः ॥३१८।। तस्या प्रत्रादिमः कालः षष्ठेन सदृशोऽखिलः । क्रमवद्धियुतश्वातिदुःषमाख्यो बलादिकः ॥३१॥ तस्यादौ जलसवृष्टिः क्षीरवृष्टिर्घनोभवा । घृतवृष्टिस्ततोऽपोक्षुरसष्टिः सुखप्रदा ॥३२०॥ सुधावृष्टिर्जगताप-नाशिनी च भविष्यति । सप्तसप्तदिनान्यत्र सुगन्धा शीतला मही ।।३२१॥