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नवमोऽधिकार।
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चतुर्दशसहस्राब्दान्यायुश्च रावणस्य वै। - जरासिंधनृपस्यायः सहस्रवत्सरप्रमम् ॥२४०।। त्रिखण्डस्वामिनोऽप्येते बह्वारम्भधनार्जनैः ।। प्रतीव विषयासक्त्योपाय पापं महत्परम् ॥२४१॥ धर्माहतेनववागुस्ताः पृथ्वोदुःखपूरिताः । रौद्रध्यानेन मृत्या या वासुदेवा गता नव ॥२४२।। वासुदेवप्रक्षिप्तेन स्वचक्रेणाखिला प्रमी । प्रवायं मरणं प्राप्य श्वभू यान्ति न चान्यथा ॥२४३॥ शलाकाया एते विलाशियका गरे । तुर्यकालेऽत्र जायन्ते नृपदेवखमाचिताः ॥२४४।।
अर्थः-अश्वनीब आदि पाँच प्रतिवासदेवों को आयु त्रिषष्ठि श्रादि पाँच वासुदेवों के सदृश ही है। अर्थात् क्रमशः ८४ लाख वर्ष, ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष, ३० लाख वर्ष और १० लाख वर्ष प्रमाण है ॥२३८॥ छठवें मधुसूदन प्रतिवासुदेव की ५० हजार वर्ष, बलि की ३२००० वर्ष, रावरण को १४००० वर्ष और नवमें प्रतिवासुदेव जरासिन्ध को आयु १००० वर्ष प्रमाण थी। 11२३६-२४०11 ये सब तीन खण्ड के स्वामी बहु प्रारम्भ परिग्रह एवं धनार्जन के द्वारा तथा अत्यन्त विषया शक्ति से अति महान पाप का उपार्जन करके धर्म के बिना, रौद्र ध्यान से मरण कर दुःख पूरित जिस जिस नरक पृथ्वी में नव दासुदेव जाते हैं, उसी पृथ्वीको ये प्राप्त होते हैं ॥२४१-२४२।। ये सभी प्रतिवासुदेव अपना चक्र वासुदेव पर छोड़ते हैं पश्चात् वासुदेव के द्वारा छोड़े हुए उसी चक्र से ये अवश्यमेव मृत्यु को प्राप्त होकर नरक जाते हैं। अन्य और किसी गति को प्राप्त नहीं होते ।।२४३।। यहाँ चतुर्थकाल में नरेन्द्रों, देवों एवं विद्याधरों से पूजित ये त्रैस शलाका के पुरुप उत्पन्न होते हैं ।।२४४॥ अब रुद्रों के नाम, उनका उत्सेध एवं प्रायु का कथन करते हैं :
भीमो बलिजितारिश्च विश्वानलाढयस्ततः । सुप्रसिष्ठोऽचलाभिख्यः पुण्डरोकोऽजितन्धरः ॥२४५।। जितनाभिस्ततः पाठः सात्वकोतनयोऽयमी । व्रतभ्रष्टात्मजारुद्रा भवन्त्येकादशाशुभाः ॥२४६।।