________________
पञ्चमोऽधिकारः
[१५१ उन वनों के मध्य में सात तलों वाले, उत्त ङ्ग, रत्नमयगृहों से व्याप्त, चैत्यालयों से विभूषित और ऊचे ऊँचे कोटों प्रादि से अलंकृत व्यन्तर देवों के श्रेष्ठ नगर हैं। जैसा वर्णन भरतक्षेत्र स्थित विजयाध का किया गया है वैसा ही ऐरावत क्षेत्र में स्थित विजयाध पर्वत का जानना चाहिये ।।११२-११५॥ भरत क्षेत्र के छह खण्ड और आर्यों के स्वरूप का अवधारण करते हैं:
प्रखिलं भारतं क्षेशं षट्खण्डीकृतमादिमम् । गङ्गासिन्धुनदोम्यांस्थाद्विजयार्धाचलेन च ॥११६॥ कृप्या दक्षिणे भागेश तरे लबणाम्बुधैः । गङ्गासिन्धुयोर्मध्येऽस्त्यार्य खण्डं शुमाकरम् ॥११७॥ यत्रार्याः स्वर्गमोक्षादीन साधयन्तिलपोबलात् ।
स्वमुक्तिश्रीसुखाधारमार्यखण्डं तदुत्तमम् ॥११॥ अर्थ:-विजया पर्वत और मङ्गा सिन्धु इन दो नदियों के द्वारा समस्त भरतक्षेत्र के छह खण्ड होते हैं । इनमें विजया के दक्षिण में, लवण समुद्र के उत्तर में और गङ्गा सिन्धु इन दोनों नदियों के मध्य में शुभक्रियाओं का प्राकर प्रार्य खण्ड है। स्वर्ग लक्ष्मी और मुक्ति लक्ष्मी के सुख का प्राधार यह उत्तम प्रार्य स्खण्ड ही है, अतः यहां आर्य जन अपने तपोबल से स्वर्ग और मोक्ष का साधन करते हैं ।।११६-११८|| म्लेच्छरखण्डों को अवस्थिति एवं म्लेच्छों का स्वरूप कहते हैं:
तस्यपूर्वे परे भागे भरतार्थेऽचलोत्तरे । स्पः पञ्चम्लेच्छखण्डानि धर्माचारातिगानि च ॥११६॥ धर्मकर्मबहिता म्लेच्छानीचकूलान्विताः ।
वसन्तिविषयासक्तास्तेषुदुर्गतिगामिनः ॥१२०॥ अर्थः—ार्य खण्ड के पूर्व-पश्चिम भाग में, अर्ध भरत क्षेत्र में विजया की उत्तर दिशा में धर्म आचरण से रहित पाँच म्लेच्छखण्ड हैं। जिनमें धर्म कम से बहिर्भूत, नीचकुल से समन्वित, विषयाशक्त और दुर्गति जाने वाले म्लेच्छ जीव रहते हैं ।।११६-१२०॥ आर्यखण्ड में अयोध्यानगरी की अवस्थिति कहते हैं:
आर्यखण्डस्य मध्ये स्याद्गङ्गासिन्नोस्तदन्तरे । अयोध्यानगरी चक्रवति भोग्या परा भवेत् ॥१२१।।