________________
सप्तमोऽधिकारः
उपर्यस्य सुसेनायाः सप्ताहोरात्र मञ्जसा ।
सात्रैकार्णवः स्याच्च मज्जयन् वनपादपान् ॥१६७॥ तदम्बुजलधौ चर्मरत्नं विस्तरति स्फुटम् । द्विषयोजनपर्यन्तं जलाभेद्यं हि वज्रवत् ॥ १६८ ॥
तस्योपरि महादेवं तिष्येतस्मिन्नुप । तच्चर्मोपरि सेनाया मेघवाधाविहानये ||१६|| छत्ररत्नं जलाभेद्यं चर्मरत्नान्तमञ्जसा । प्रसरेविति तद्रत्नद्वयं स्थादण्डकोपमम् ॥ २००॥
चतुर्द्वाराङ्कितस्यास्य मध्ये चक्रेशपुण्यतः । निराबाधतया कृत्स्नं संन्यं तिष्ठेत्स्वशर्मणा ॥ २०१ ॥ सतचक्रधरो ज्ञात्वा तद् वोश्यमुपद्रवम् । देवानुद्दिश्य दिव्याङ्ग तथा वाणं विमुञ्चति ॥ २०२॥ तथा ते निर्जरादुष्टा जायन्ते निःप्रमास्ततः । ते निर्जिता विलोक्योच्च एच किमाहात्म्यमूजितम् ॥२०३॥
देवा म्लेच्छ पाश्चत्य सेवां कुर्वन्ति चक्रिणः । हस्त्यश्व रत्नकन्यादिदानंः प्रणाम भक्तिभिः ॥२०४॥
[ २२३
अर्थः-- चक्रवर्ती विजयार्थ गुफा के उत्तर द्वार से निकल कर मध्य में स्थित मध्यम म्लेच्छ खराब की भूमि को प्राप्त कर अनेक म्लेच्छ राजानों को जीतने के लिये षड् (छह ) अंगों की सेना सहित ठहर गया ।।१६२।। तब चक्रवर्ती के आगमन को देखकर भय से आकुलित म्लेच्छ राजा अपने कुल देवताओं के पास आकर और उनकी प्राराधना करके अपने भय का कारण कहने लगे। उसे सुनकर वे देवगण क्रोधित हो उठे और मेघमुख नाम के देव ने ग्राकर चक्रवर्ती की सेना के सुभटों पर घोर उपद्रव किया | अनेक प्रकार के व्याघ्र आदि भीषण रूपों के द्वारा किये हुये अनेक उपद्रव चक्रवर्ती के पुण्य से सेना को किचित मात्र भी क्षोभ नहीं पहुँचा सके । तब वे देव अपनी विक्रिया के द्वारा जल की मोटी मोटी धारा के द्वारा जल की महान् वृष्टि, विद्यस्पात एवं मेघगर्जन आदि करने लगे । सेना के ऊपर यह उपर्युक्त वर्षा सात दिन रात पर्यन्त होती रही जिससे वहाँ वन के वृक्ष आदिकों को डुबाने वाला एक समुद्र हो गया ।।१६३ - १६७ ।। उस जल समुद्र के ऊपर बारह योजन पर्यन्त जल के द्वारा अभेद्य और वज्र के समान एक चर्मरत्न फैला दिया गया। उसके ऊपर वह महान सेना उस उपद्रव के समय में ठहर गई । सेना की मेघ श्रादि की बाधा को दूर करने के लिये उस चर्मरत्न के ऊपर जल