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अष्टमोऽधिकार :
[ २६१ विहार करते हुये दिखाई देते हैं ।। १५४॥ वहाँ पर अङ्ग और पूर्व रूप जिनागम को स्वयं पढ़ते हुये पीर अन्य मुनिगणों को पढ़ाते हुये तथा रत्नत्रय एवं तप से विभूषित अनेक उपाध्याय परमेष्ठी हैं ।।१५५॥ वहाँ पर उत्तम ध्यान में संलग्न तथा महाघोर तप से पालीढ़ साधु पर्वतों पर, कन्दरामों में, दुर्ग आदि में, वनों में तथा और भी अन्य निर्जन स्थानों में निवास करते हैं ।।१५६॥ विदेह क्षेत्र में उत्तम भव्य जीवों के द्वारा वन्दित एवं पूजित प्रवर्तक साधु, गुणसमूह से वृद्ध-महान् साधु तथा अन्य और भी यति समूह पद पद पर दिखाई देते हैं ।। १५७। इस प्रकार इनको प्रादि लेकर जिनेन्द्र भगवान्, योगियों के अधिनायक प्राचार्य प्रादि तथा अनेक प्रकार के धैर्यवान् निर्ग्रन्थ साधु मोक्षमार्ग में स्थित रहते हैं। वहाँ स्वप्न में भी कुलिङ्गी साधुनों के दर्शन नहीं होते ॥१५८॥ योगिजन अङ्ग पूर्व प्रादि के समस्त नागम को पढ़ते हैं और श्रावक गण नित्य ही सुनते हैं । खोटे शास्त्र वहाँ पर कभी भी नहीं सुनते ।१५६।। स्वर्ग और मोक्ष सुख का जो साधक है, श्रावक धर्म और मुनि धर्म के भेद से जो दो प्रकार है तथा अहिंसा ही जिसका लक्षण है, ऐसा अनाद्यनिधन धर्म हो वहाँ निरंतर प्रवर्तित रहता है ।।१६।। वहाँ पर व्रत, शील और उपवास आदि के द्वारा जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित श्रेष्ठ धर्म का ही सेवन होता है । भूतों के द्वारा कहा हुना तथा अन्य हिसा आदि से उत्पन्न और दुर्गति प्रदाता धर्म नहीं है। ॥१६१1। वहाँ की प्रजा क्षत्रिय, वंश्य और शूद्र इन तोन वर्षों से समन्वित है, भद्रपरिणामी अर्थात् कुटिलता रहित है, विवेकवान एवं ज्ञानवान् है, जिनधर्मपरायण, न्यायमार्ग में प्रारूढ़ और सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से अलंकृत है। वहाँ पर मिथ्यामतों से उत्पन्न होने वाली खोटो बुद्धि को धारण करने वाले मनुष्य नहीं हैं, तथा कुमार्गगामी द्विज-ब्राह्मण भी नहीं हैं ॥१६२-१६३।।
यहाँ जन संघों में भेद नहीं हैं, न यहाँ पाखण्डो दर्शन हैं और न एक अद्वितीय जिनमत के बिना अन्य कोई मतान्तर हैं ॥१३४।। वहाँ पर जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुमा, अनन्त सुख प्रदाता रत्नत्रयात्मक सत्य मोक्षमार्ग का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है ।।१६।। यहाँ उत्पन्न होने वाले निपुण श्रावक एवं धाबिकाएँ श्रावका धर्म के प्रभाव से सोलह स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं । कोई भद्रपरिणामी गृहस्थ पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं, और कोई बुद्धिमान् जन जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, स्तुति एवं भक्ति प्रादि के द्वारा इन्द्र पद प्राप्त करते हैं ।।१६५-१६७॥ बहुत प्रकार के भोगों को भोगने वाले जो विवेकी देव स्वर्ग में पुण्यकर्मा हैं वे वहाँ से चय होकर स्वर्ग और मोक्ष की सिद्धि के लिये विदेह क्षेत्रस्थ उत्तम कुलों में जन्म लेते हैं ।।१६८।। वहां उत्पन्न होने के बाद रत्नत्रय युक्त घोर तपश्चरण के द्वारा चे प्रयत्नपूर्वक साक्षात् मोक्ष को ही साधते हैं। वहाँ का अन्य और क्या वर्णन किया जाय ॥१६६॥ पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह का यहां समस्त वर्णन जैसा किया गया है, वैसा ही धातकी खण्ड पीर पुष्कराधंगत विदेह क्षेत्रों का जानना चाहिये ।।१७०।। मढ़ाई द्वीप में उत्कृष्ट रूप से एक साथ एक सौ सत्तर तीर्थकर उत्पन्न हो सकते हैं। मनुष्यों और देवों से अचित चक्रवर्ती भी एक साथ एक सौ सत्तर हो सकते हैं । पञ्च मेरु सम्बन्धी १६० विदेह देशों के १६० आर्य खण्ड और पांच