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सिद्धान्तसार दोपक ___अर्थ:-जब तृतीयकाल के अन्त में पल्य का पाठवा भाग अवशेष रहता है तब यहाँ सार्यों का हित वारने में प्रवीग ऐसे दौदह कुलकर क्रम से उत्पन्न होते हैं। उनमें से प्रथम कुलकर प्रतियुति नाम के हुए। जिनकी पत्नी का नाम स्वयं प्रभा था। जो हेमवर्ण की प्राभा से युक्त अति रूपवान् एवं बुद्धिमान थे। उनके वरोर की ऊँचाई १८०० धनुष और प्राय का प्रमाण पल्प को दश भागों में से एक भाग ( पल्य ) प्रमाएरा थी । तत्काल ही अर्थात् पल्य का आठवाँ भाग अवशेष रहने पर ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की कान्ति नष्ट हो जाने पर प्राकाश में ( प्राषाढ़ी पूर्णिमा के दिन ) सूर्य और चन्द्र का प्रादुर्भाव होता है, उन रवि शशि के दर्शन से भयभीत हुए वे सब आर्य और प्रार्या शीघ्र ही प्रतिश्रुति कुलकर को शरण में पहुंचते हैं, तब वे बुद्धिमान् प्रतिश्च ति कुलकर शीघ्र ही अपने प्रिय वचनों द्वारा सूर्य चन्द्र के उदय काल आदि के स्वरूप का वर्णन करके उनका भय दूर करते हैं ।।४८-५३॥ उसी समय ही उन्होंने मनुष्यों को "हा" इस दण्ड नीति की शिक्षा दी थी। अर्थात् अपराध करने वाले मनुष्यों को 'हा' इस प्रकार के दण्ड का स्थापन किया था। इसके बाद अर्थात् इस कुलकर की मृत्यु के बाद पल्योपम के अस्सी भाग समाप्त हो चुकने पर यशस्वति स्त्री के स्वामी सन्मति नाम के द्वितीय महामनु यहाँ उत्पन्न हुए। इनके शरीर की ऊँचाई १३०० धनुष, प्रायु पल्य के सौ भागों में से एक भाग ( पल्य ) प्रमाण और शरीर को कान्ति स्त्रर्ण सदृश थी। सर्व ज्योतिरंग कल्प वृक्षों के क्षय हो जाने से चमकती हुई प्रभा से युक्त प्रगट होते हुए ग्रहों एवं तारागणों ने आकाश मण्डल को आपुर्ण कर दिया अर्थात् भर दिया, जिसके दर्शन से भयभीत हुए लोक जन सन्मति प्रभु की शरण को प्राप्त हुए । उनके भय को नाश करने के लिए वे इस प्रकार श्रेष्ठ वचन बोले कि हे भद्र जनो ! ये ग्रह हैं,
और ये शुभ तारा गण आदि हैं। इस ज्योतिष चक्र से आप लोगों को किंचित् भी भय नहीं करना चाहिए, क्योंकि अब इन्हीं ज्योतिष देवों के द्वारा आप लोगों को दिन और रात्रि के भेद का ज्ञान होगा । इस प्रकार मनु के वचनों से सन्तोष को प्राप्त होकर तथा उनको स्तुति करके वे सब अपने अपने स्थान को चले गये। दोष करने वाले लोगों को वे उत्तम बुद्धि के धारक सन्मति मनु 'हा' इसो दण्ड नीति में तर्जन करते थे ॥५४-६०।।
अब क्षेमकर आदि तीन कुलकरों को प्रायु आदि का तथा उनके कार्यों का । वर्णन करते हैं :--
ततोऽष्टशतभागानां पल्यस्यातिक्रमे सति । एकभागे भनुर्जज्ञे क्षेमकरो विशारदः ॥६१॥ सुनन्दायाः स्त्रियोभाप्रोद्यमी काञ्चनच्छविः । शताष्टधनुरुत्तुङ्ग एकभामायुस्त्तमः ॥६२॥