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सिद्धान्तसार दीपक नदियों के समुह और नाना प्रकार के श्रेष्ठ मेघों का स्वयं ही प्रादुर्भाव हुआ था। मरुदेव कुलकर ने नदी और समुद्र आदि को पार करने के लिए पुल, नाव और द्रोणी आदि का तथा पर्वत आदि पर चढ़ने के लिए सोपान मालिका-सीढ़ियों की पंक्तियों का विधान किया था ।।१००-१०११। इसके पश्चात् पल्य के आठ लाख करोड़ भाग व्यतीत हो जाने पर प्रियंमुमरिण की हरित प्राभा के सदृश उत्तम शरीर ध्रुति से युक्त प्रसेनजित् मनु उत्पन्न हुए ।।१०२॥ आपके शरीर की ऊँचाई ५५० धनुष और अायु पाम के दाला रोड भारों से एक भाग (
पत्य) प्रमाण थी॥१०३।। प्रसेनजित् मनु के द्वारा भी हा-मा और धिक्कार नोति का ही प्रयोग किया गया था। आपके पिता अमितगति ने प्रापका विवाह उत्तम कन्या से विधि पूर्वक किया था 11१०४॥ यह एक ही कुलकर बिना युगल के उत्पन्न हुए हैं और इसी समय से युगल उत्पत्ति का नियम समाप्त हूया है। अर्थात् युगल ही उत्पन्न हों, ऐसा नियम नहीं रहा ॥१०५॥ इसी समय में पुत्रों (सन्तानों) को उत्पत्ति जरायु पटल से श्रावृत्त होने लगी थी। उस समय आपने अपनो मृदु वागौ के द्वारा प्रजा को जरायु आदि काटने का तथा स्नान आदि कराने का उपदेश दिया था ।। १०६ ।। पश्चात् पल्य के अस्सी लाख करोड़ भाग व्यतीत हो जाने पर पुण्य उदय से चौदहवें कुलकर नाभिराय उत्पन्न हुये ॥१०७।। मरुदेवी कान्ता के स्वामी, विद्वान्, हेमकान्ति को धारण करने वाले और देवों द्वारा पूजित आपकी ऊँचाई ५२५ धनुष प्रमाण तथा प्रायु एक पूर्व कोटि प्रमाण थो। आप भी हा-मा और धिक् दण्ड नीति का ही प्रयोग करते थे। इस काल में सन्तान की उत्पत्ति नाभि नाल से युक्त होने लगी थी। आपने माता पिता के सुख के लिए उस नाल को काटने का उपदेश दिया था, इसीलिये प्रजा ने प्रापका सार्थक नाम नाभिराय रखा था ।।१०५-११०॥
__इसो काल में नभ को व्याप्त करके बिजली सहित मेघ गम्भीर गर्जना के साथ साथ स्थूल जल धारा के द्वारा बार बार महावृष्टि करने लगे थे ।।१११।। वर्षा होने के वाद हो पृथ्वी पर धीरे धीरे चारों ओर पूर्ण रूपेण पके हुए अनेक प्रकार के धान्य को वृद्धि होने लगी थी, जिसमें शालि चावल, कलम, ब्रीहि आदि और अनेक प्रकार के चावल, जव, गेहूँ, कांगणो, श्यामक ( एक प्रकार का धान्य ) कोदों, मोट, नोवार ( कोई धान्य ), वरवटी, तिल, अलसी, मसूर, सरसों, बना, जीरा, उड़द, मूग, अरहड़, चौला, निष्पावक ( बालोर), चना, कुलथी और त्रिपुटा ( तेवड़ा ) आदि भेद वाले धान्य हो गये थे । तथा कल्पवृक्षों की सम्पूर्ण रूपेण समाप्ति हो जाने पर प्रजा के जीवनोपयोगी कौसुम्भ और कापास प्रादि की भी उसी समय उत्पत्ति हो गई थी। कल्पवृक्षों का अभाव हो जाने से जीवों में प्राहार की तीन वाञ्छा उत्पन्न होने लगी, उस समय सर्व अङ्गों को शोषण करने वाली क्षुधा बेदना से प्रजा अन्तरङ्ग में अत्यन्त दुःखी होती हुई नाभिराय मनु के समीप जाकर तथा नमस्कार करके दीन वचनों से इस प्रकार कहने लगी कि-हे स्वामिन् ! हम लोगों का पुण्य क्षय हो जाने से समस्त कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं और उनके स्थान पर और कोई नाना प्रकार के अनेक वृक्ष स्वयमेव उत्पन्न हुए हैं, इनमें