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सिद्धान्तसार दीपक
श्रेयसः प्रोक तोते
वासुपूज्यस्य पत्येकं धर्मनाशो द्विधाभवत् ॥ १७० ॥ पादोन पत्यमिव श्रीविमलस्य जिनान्तरे ।
धर्म नाशोऽप्यनन्तस्य पत्यार्ध कालदोषतः ।। १७१ ।। धर्मनाथजिनेन्द्रस्य भागे जिनान्तरान्तिमे । पल्यपादोऽभवद् वक्तृश्रोतॄयत्पाद्यभावतः ॥ १७२ ॥
श्रः- पुष्पदन्त भगवान् के काल के अन्त में पल्य तक धर्म का व्युच्छेद रहा। शीतलनाथ के अन्तराल में अपत्य यांसनाथ के तीर्थकाल के अन्त में पत्य और वासुपूज्य भगवान् के तीर्थकाल के अन्त में एक पल्य पर्यन्त मुनि और श्रावक इन दोनों प्रकार के धर्म का प्रभाव रहा । विमल जिनेन्द्र के अन्तर काल के अन्त मेंपत्य तक तथा कालदोष से ग्रनन्तनाथ के तीर्थ में पल्य पर्यन्त धर्म का नाश रहा और धर्मनाथ जिनेन्द्र के अन्तर काल के अन्तिम भाग में पत्थ पर्यन्त वक्ता और श्रोता दोनों का सर्वथा प्रभाव रहा । अर्थात् सुविधिनाथ श्रौर शीतलनाथ के अन्तराल में पत्यतक, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के अन्तराल में पल्य तक श्रेयांस एवं वासुपूज्य के अन्तराल में 3 पल्यतक, वासुपूज्य और विमलनाथ के अन्तराल में एक पल्य तक, विमल एवं ग्रनन्त नाथ के अन्तराल में पल्य तक, श्रनन्तनाथ एवं धर्मनाथ के अन्तराल में २ श्रीर धर्मनाथ एवं शांतिनाथ के अन्तराल में है पल्य तक जैन धर्म का अत्यन्त विच्छेद रहा। अर्थात् चतुर्थकाल में ४ पल्य तक जैन धर्म के अनुयायियों का सथा प्रभाव रहा ।। १६६-१७२।।
हुण्डावसवणी काल की विशेषताओं को दर्शाते हैं
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उत्सपिण्यवस पिण्यसंख्यातॆषु गतेष्वपि । हुण्डावसपिरीकाल इहायाति न चान्यथा ॥ १७३ ॥ तस्यां हुण्डावसविण्यां पंचपाखण्डदर्शनम् । शलाकापुरुषा ऊनाः सङ्गमेवा श्रनेकशः ॥ १७४॥ जिनशासनमध्ये स्युविपरीता मतान्तराः ।
चीवरायावृता निन्द्याः सग्रन्थाः सन्ति लिङ्गिनः ।। १७५ ।। उपसर्ग जिनेन्द्राणां मानभङ्गाश्च चक्रिणाम् । कुदेव मठसूर्याद्याः कुशास्त्राणि बुरागमाः ॥ १७६ ॥ दुर्मार्गा गुरवः काम-लालसा दुई शोजनाः । इत्याद्या परेऽनिष्टा जायन्ते बहवोऽशुभाः ॥ १७७॥