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नवमोऽधिकार :
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से कौन से वृक्ष छोड़ने योग्य हैं और कौन से भोगने योग्य हैं यह समझाते हुए आप हमें ऐसा सर्वोत्तम उपाय बतलाइये जिससे हम लोगों की जीविका चले। इसके बाद नाभिराय इस प्रकार बोले कि - हे भद्र ! इनमें ये तो उत्तम वृक्ष भोगने योग्य और काम में लेने योग्य हैं तथा ये विष आदि के वृक्ष हैं, जी शीघ्र ही छोड़ने योग्य हैं ।। ११२-१२० ।। इनमें ये वृक्ष महा श्रौषधि रूप हैं, ये आप आदि खाने योग्य हैं और ये गन्ना श्रादि हैं, जिनका यन्त्र के द्वारा रस निकाल कर पीना चाहिए । इस प्रकार राजा के वचनों को सुन कर और भली प्रकार प्रीतिपूर्वक उन्हें नमस्कार करके प्रजा उनके द्वारा दर्शाई हुई कालोचित वृत्ति का सेवन करने लगी ।। १२१-१२२॥
अब कुलकरों की उत्पत्ति प्रादि का कुछ वर्णन करते हैं :--
प्रतिश्रुत्यादयोऽत्र वरिता मनवोऽखिलाः ।
ते प्राग्भाविदेहेषु ज्ञेया नृपाः महान्वयाः || १२३॥ सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्वं पात्रदान शुभार्जनैः । भोगभूमिमनुष्याणां बद्ध्वायुस्ते शुभाशयाः || १२४॥ पश्चात क्षायिकसम्यक्त्वं जिनान्ते काललब्धितः । गृहीत्वा स्वायुरन्ते सर्वे जाता विचक्षणाः ॥ १२५ ॥
तेषु जातिस्मराः केचित्केचिच्चावविलोचनाः ।
एतान् हितोपदेशादीन् प्रजानामादिशन् बुधाः ॥ १२६॥
अर्थ – यहाँ पर जिन प्रतिश्रुति आदि कुलकरों का वर्णन किया गया है वे सभी पूर्व भव विदेह क्षेत्र में उत्तम कुलोत्पन्न श्रेष्ठ राजा थे । सम्यक्त्व ग्रहण के पूर्व पात्रदान से प्रजित पुण्य फल के द्वारा उन पवित्र चित्तवृत्ति वाले सभी मनुयों ने भोगभूमि के मनुष्यों की श्रायु का बन्ध कर लिया था । पश्चात् काललब्धि के योग से जिनेन्द्र भगवान् के पादमूल में विचक्षण बुद्धि को धारण करने वाले वे सभी आयु के अन्त में वहां से हैं ।। १२३ - १२५ ।। उनमें से किन्हीं को जातिस्मरण और किन्हीं को विद्वज्जन प्रजा को हितोपदेश देते हैं ।। १२६ ॥
क्षायिक सम्यक्त्व ग्रहण करके
प्र ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती को दण्डनीति तथा ऋषभदेव के मोक्ष जाने
का वर्णन करते हैं :--
मरण कर यहाँ उत्पन्न होते अवधिज्ञान होता है, जिसमे वे
नाभेः कुलकरस्यान्तिमस्यात्रासीत्सुतः परः ।
ऋषभस्तीर्थकृत् पूज्यः कुलकृत् त्रिजगद्धितः ।। १२७ ।।