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नवमोऽधिकारः
मांसाशिपक्षिणः क्रूरा अन्ये जलचरादयः । ते सर्वे विकलाक्षाद्याः कालेऽस्मि स्वयमुद्गताः ।। १३७ ।। चतुर्विंशतितीर्थशास्चक्रेशा द्वादशोत्तमाः । बलदेवा नथैवासन् वासुदेवा नवोत्कटाः || १३८ ॥ तच्छत्रवोऽत्र तावन्तो रुद्रा एकादशाशुभाः । चतुविशतिकामाश्च दुर्वेधा नारदा नव ॥१३६॥
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अर्थः- तृतीयकाल के अन्त में दुखमा सुखमा नाम का चतुर्थ काल प्रारम्भ हुआ, जो दुख और सुग्व 'दोनों का सम्पादन करने वाला था और उसका प्रसारण व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर ( १०००००००००००००० सागर – ४२००० वर्ष ) था । इसमें शुभकर्मों द्वारा पुण्य उपार्जन करने वाले तथा स्वर्ग और मोक्ष का साधन करने वाले जीव उत्पन्न होते थे ।। १३२ - १३३|| चतुर्थ काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की उत्कृष्ट प्रायु एक पूर्व कोटि ( ७०५६ के प्रागे १७ शून्य शरीर की आभा पंच वर्ण की थोर ऊँचाई ५०० धनुष प्रमाण थी || १३४ | | उस समय जीव दिन में एक बार पूर्ण आहार करते थे तथा षट्कर्मों में तत्पर रहते थे, और आयु के अन्त में मोक्ष एवं कर्मानुसार चारों गतियों को प्राप्त होते थे ।। १३५|| प्रारम्भ के भोगभूमि सम्बन्धी तीनों कालों में दुखदाई हीन्द्रिय, वेन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय अर्थात् विकलत्रय जीव, मांस भक्षी एवं अन्य क्रूर पक्षी तथा जलचर आदि जो जोव उत्पन्न नहीं होते थे, वे सब इस काल में स्वयमेव उत्पन्न होने लगे थे ।। १३६-१३७।। इस काल में चौवीस तीर्थकर, द्वादश चक्रवर्ती, नव नारायण और नव हो प्रतिनारायण उत्कट बल के धारी हुये । ग्यारह रुद्र, शुभकार्य करने वाले चौबीस कामदेव और दुर्बुद्धि धारी नव नारद भी इसी काल में होते हैं ।। १३८ - १३६॥
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प्र चौबीस तीर्थंकरों का सविस्तृत वर्णन करते हैं वृषभोऽजिततीर्थेशः सम्भवाख्योऽभिनन्दनः । सुमतिः श्रीजिनः पद्मप्रभसुपादतीर्थंकृत् ॥ १४०॥ चन्द्रप्रभजिनः पुष्पयन्तः शीतलसंज्ञकः । श्रेयान् श्रीवासुपूज्योऽहं विमलोऽनन्ततोर्थकृत् ॥ १४१ ॥ धर्मः शान्तीश्वरः कुन्थुनाथोऽशे मल्लिनामकः । मुनिसुव्रततीर्थेशो नमिर्ने मिजिनेश्वरः ।। १४२ ॥ पार्थः श्री वर्धमानाख्य एते श्रीजिननायकाः । त्रिजगन्नाथवन्द्याश्चतुविशतिरेव च ।। १४३ ॥