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सिद्धान्तसार दोपक हा-मा-धिगनीतिमार्गोत्तोऽस्य पुत्रो भरतोऽग्रजः । चक्री कुलकरो जातो बधबन्ध्यादि दण्डभृत् ।।१२८।। ततश्चतुर्थकालाच्च पूर्व श्रयादिजिनेश्वरः । मुक्ते मार्ग द्विधा धर्म प्रकाश्य ध्वनिना सताम् ॥१२६॥ हत्या कृत्स्नाङ्गकर्माणि प्राप्य देवाधिपार्चनम् । अनन्तगुणशर्माधिजगामान्ते शिवालयम् ॥१३०॥ विश्वाग्रस्थं ततीयस्य कालान्तेऽस्यान्तिमे सति ।
वर्षत्रये ऽवशिष्टे च सार्धाष्टमाससंयुते ॥१३१॥ अर्थ:-अन्तिम कुलकर नाभिराय के ऋषभदेव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो तीर्थंकर, पूज्य, कुलकर और त्रैलोक्य का हित करने वाला था 1 आपने भी हा-मा और धिक् दण्डनीति का ही प्रयोग किया था। आपके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत, कुलकर रूप में उत्पन्न हुए जिन्होंने दोष करने वालो प्रजा पर बध, बन्धन आदि दण्ड नीति का प्रयोग किया ।।१२७-१२८॥ चतुर्थ काल से पूर्व ही अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से युक्त प्रथम तीर्थकर हुए, जो भव्य जनों को अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा मोक्षमार्ग को तथा मुनि और धावक के धर्म को प्रकाश कर, सम्पूर्स कर्मों को नष्ट कर तथा देवेन्द्रों से पूजा को प्राप्त कर सम्पूर्ण तृतीयकाल के अन्त में तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर अनन्त गुण और अनन्त सुख के सागर मोक्ष को प्राप्त हुए ॥१२६-१३१॥ अब चतुर्थकाल का सविस्तृत वर्णन करते हैं :---
ततश्चतुर्थकालोऽभूत् दुःषमासुषमाह्वयः । दुःखसौख्यकरो ह्येक कोटीकोटयम्बुधिप्रमः ॥१३२॥ ऊनो वर्षद्विचत्वारिंशत्सहस्रप्रममहान् । शुभः कर्मधरोत्पन्नः स्थर्मोक्षसुखसाधनः ॥१३३॥ प्रस्यादौ मानवाः सन्ति पूर्वकोटिपरायुषः । पञ्चवर्णा लसद्द हाश्चापपञ्चशतोच्छिताः ॥१३४।। यारेक पूर्णमाहारं दिन प्रत्याहरन्ति ते । षट्कर्मकारिणोऽन्ते मोक्षचतुर्गतिगामिनः ॥१३५।। प्राधकालत्रये भोगभूमिभागेषु येऽङ्गिनः । न भूता दुःखदा द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातयः ॥१३६॥