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सिद्धान्तसार दीपक बड़े हो जाते हैं ।।२४॥ अन्य सात दिनों में वे उठ कर सुन्दर वचन बोलते हैं और स्वयं अपनी इच्छा से क्रीड़ा करते हुए अस्थिर गति से भूमि पर चलते हैं ॥२५।। पुनः सात दिन पर्यन्त स्थिर पर रखते हुए चलते हैं, और अन्य सात दिनों में वे ज्ञान कला आदि सद्गुणों के द्वारा परिपूर्ण हो जाते हैं ॥२६॥ अन्य सात दिनों के द्वारा दिव्य वस्त्राभूषणों से युक्त और अखण्ड भोग-भोगने वाले वे स्त्री पुरुष सम्पूर्ण नव योवन सम्पन्न हो जाते हैं ॥२७॥ दानी मनुष्य शुभ योग से भोगभूमिज स्त्रियों के अत्यन्त निर्मल गर्भ में नौ मास स्थित रह कर उत्पन्न होते हैं और पश्चात् वे ही दम्पतिपने को प्राप्त हो जाते हैं ।।२८॥ जब नवीन दम्पति उत्पन्न होते हैं तभी उत्पन्न करने वाले दम्पति मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसीलिए माता पिता पुत्रादि की उत्पत्ति के सुख से रहित होते हैं । अर्थात् ये पुत्र पुत्री हैं इस संकल्प से रहित होते हैं ॥२६॥ अब भोगभूमिज जीवों को अन्य विशेषताएं कहते हैं :
प्राजन्ममरणान्तं नार्याणां रोगो मनाक् क्यचित् । न चेष्टादिवियोगो नानिष्टसंयोगशोचनम् ॥३०॥ न चिन्ता दीनता नैव नाप्युन्मेषनिमेषणम् । न निद्रा नातितन्द्रा नो लाला स्वेवोद्भवो न च ॥३१॥ मलं मूत्रन शारीरं कामभोगे न खण्डता । विरहो नाशुभोन्मादो नेपा न च पराभवः ॥३२॥ विषादो न मयं ग्लानि च किञ्चिद विरूपकम् । मन्यस् वा जायते दुःखहेतुः स्वप्नेऽपि भोगिनाम् ॥३३॥ आदि संहनना आदि संस्थाना दिव्यरूपिणः । समभोगोपभोगास्ते सबै मन्दकषायिणः ॥३४॥ स्वभावसुन्दराकाराः स्वभावसौम्पमूर्तयः ।
स्वमावमधुरालापाः स्वभावगुणभूषिताः ॥३५॥ अर्थ:-भोगभूमिज मनुष्यों के जन्म से मरण पर्यन्त न कभी किंचित् भी रोग होता है. न इष्ट आदि का वियोग, न अनिष्ट आदि का संयोग और न शोच आदि होता है. न चिन्ता है, न देन्यता है और न नेत्रों का उन्मेषनिमेष अर्थात् पलकों का झपकना है । न अति निद्रा है, न अति तन्द्रा, न मुख से लार और न शरीर से पसीना की उद्भूति होती है, शरीर सम्बन्धी मलमूत्र भी नहीं होता, और नकाम भोग में कभी खंडता आती है, न कभी विरह होता है, न अशुभ उन्माद होता है, न ईर्षा भाव है, न पराभव है, न विषाद है, न भय है, न ग्लानि है, और न शरीर आदि में किञ्चित् भी विरूपता होती है। उन भोगी जीवों के स्वप्न में भी अन्य कोई दुःख के कारण उत्पन्न नहीं होते ॥३०-३३।। वे सर्व भोगभूमिज जीव