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सिद्धान्तसार दीपक
मृदुसूक्ष्मारिणवस्त्राणि पट्टकूलानि संततम् । वितरन्ति च वस्त्रांगाः प्रावारपरिधानकान् ।।१७॥ न वनस्पतयोऽौते नापिदेवरधिष्ठिताः । फेवलं पृथिवीसारमया निसर्गसुन्दराः ॥१८॥ अनादिनिधनाः फल्पद्रुमाः सत्पात्रदानतः । संकल्पितमहाभोगान् दशमेवांश्च्युतोपमान् ॥१९॥ फलन्ति बानिनां प्रोत्यै यथते पादपा भुयि । सर्वरत्नमयं दीप्रं भात्या भूतलं परम् ॥२०॥
- : काल में गवांग पानांग, पांधांग, भूषणग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । इनमें से मद्यांग नाम के कल्पवृक्ष प्रमोद बढ़ाने वाले, मद्य के समान कामोद्दीपक, अमृत की उपमा को धारण करने वाले और श्रेष्ठ ( वीर्यवर्धक ) ( ३२ प्रकार के ) उत्कृष्ट रसों को देते हैं ।।८.६|| वाद्यांग कल्प वृक्ष, भेरी, पदहा शल प्रादि लथा गीत नत्य आदि के उपयोग में आने वाले वीणा, मृदंग और भल्लरी श्रादि वाद्यों को देते हैं ||१०|| भूषणांग कल्पवृक्ष स्वर्ण और रत्नमय देदीप्यमान् हार, कुण्डल, केयूर और मुकुट आदि दिव्य प्राभूषण देते हैं ।।११।। स्रगंगकल्पवृक्ष वहाँ के प्रार्य मनुष्यों के भोग और सुख के लिये सर्व ऋतुमों के फूलों से बनी हुई नाना प्रकार की दिव्य मालाएँ देते हैं ॥१२॥ दीपांग कल्पवृक्ष मरिंगमय दीपों के द्वारा अन्धकार को नष्ट करते हुए सुशोभित होते हैं। ज्योतिरंग कल्पवृक्ष देदोग्यमान ज्योति से महान प्रकाश फैलाते हैं ।।१३।। गृहांग वृक्ष निरन्तर ऊँचे-ऊँचे प्रासाद. सभागृह, मण्डप ग्रादि तथा चित्र शालाएँ और नृत्य आदि शालाएँ देने में समर्थ हैं ।।१४॥ भोजनांग कल्पवृक्ष पुण्य के प्रभाव से अन्न, पान, खाद्य और लेह्य यह चार प्रकार का अमृततुल्य, उत्तम स्वाद देने वाला, छह रसों से युक्त
और दिव्य आहार देते हैं ।।१५। भाजनांग कल्पवृक्षों को शाखानों के अग्रभाग पर स्वर्णमय थालियाँ, भुंगार, कटोरा और करक ( जलपात्र ) प्रादि प्रगट होते हैं ॥१६||
वस्त्रांग कल्पवृक्ष निरन्तर मृदु एवं बारीक रेशम आदि के वस्त्र और धोतो दुपट्टा तथा अभ्यंतर में पहिनने योग्य वस्त्रों को देते हैं ॥१७|| ये दशों प्रकार के कल्पवृक्ष न वनस्पतिकाय हैं और न देवों के द्वारा अधिष्ठित हैं, ये तो केवल पृथ्वी के सारमय, स्वाभाविक सुन्दर और अनादिनिधन हैं। सत्पात्र दान के प्रभाव से उपमा रहित ये कल्पवृक्ष मनोवांछित उत्तम भोगों को देते हैं। पृथ्वी पर जैसे अन्य वृक्ष फल देते हैं उसी प्रकार दानियों के फल प्राप्ति के लिए ये वृक्ष फलते हैं, यहां की सर्व रत्नमय चमकती हुई उत्कृष्ट भूमि अत्यन्त सुशोभित होती है ॥१६-२०।।