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नवमोऽधिकारः
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अर्थ:-सी काल के इन छह कालों में से सुख के आकर स्वरूप प्रथम काल का नाम सुषमासुषमा है, जहां की रचना उत्कृष्ट भोगभूमि के सहश होती है ||४|| इस काल का प्रमाण चार कड़ा सागरोपम (४०००००००००००००० सागर ) होता है । इस काल के आदि में जीवों की आयु का प्रमाण तीन पल्योगम, शरीर की कान्ति तपाये हुए स्वर्ण के सदृश और ऊँचाई तीन कोश (छह हजार वनुष) प्रमाण होती है । 'आर्य' इस नाम को धारण करने वाले मनुष्य तीन दिन बाद बदरीफल प्रमाण दिव्य आहार का भोजन करते हैं ।।५-६ ।। उत्तम पात्रदान के फल से उत्पन्न उत्कृष्ट पुण्य के द्वारा यहाँ उत्पन्न होने वाले जीव दश प्रकार के कल्पवृक्षों से है उत्पत्ति जिनको ऐसे उत्कृष्ट भोगों को निरन्तर भोगते हैं ||७||
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अब दशप्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन करते हैं :
मद्याद्यविभूषास्त्रग्दीपज्योतिगृहाङ्गकाः । भोजनाङ्गास्तथा भाजनवस्त्राङ्गा दशेत्यमी ॥८॥ मांगा वितरन्येषां ततामोदान् रसोत्कटान् । सारान् सुधोपमान् कामोद्दीपकान् मद्यवत्तराम् ॥६॥ भेरीपटहखादीन्नाना वाद्यान् फलन्ति च । वाद्याङ्गागीतनृत्यादौ वीणामृदंग-भल्लरीः ॥१०॥ स्वर्णरत्नमयान् दीप्तान् दिव्यांश्च भूषरगांगकाः । हारकुण्डलकेयूरमुकुटादीन् ददत्वलम् ॥११॥
जो नानाविधादिव्याः सर्वतु कुसुमांकिताः स्तुवन्ते भोगसौख्यायार्याणां सदा त्रगंगकाः ॥ १२ ॥ ध्वस्तध्वान्ताश्च दीपांगाम रिणदीपविभान्त्यलं । ज्योतिरंगा महोद्योतमातन्वन्ति स्फुरद्र ुचः ॥१३॥ तु सौस भागेहमण्डवादीन् गृहांगकाः । चित्र नर्तनशालाश्च विधातु सर्वदा क्षमाः ॥ १४ ॥ अन्नादिचतुराहारानमृतस्थावुदायिनः । festive षड्रसान् पुण्याद् भोजनांगा ददस्य हो ।। १५१। हेमस्थलानि भृंगारान् चषकान् करकादिकान् । भाजनांगा दिशन्त्याविर्भवच्छाग्र सत्फलाः ॥१६॥