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नवमोऽधिकारः
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भोगभूमि का अवशेष वर्णन :---
मृगाश्चरन्ति तत्रात्या मृदुस्वादुतृणान्यपि । अशुगुमाननि रसायनरमायया ॥२१॥ न तशातपजा बाधा शोतो वृष्टिर्न जातुचित् ।
ऋतवो नाप्यहोरात्र किञ्चिन्नाशर्मकारणम् ॥२२॥ अर्थः-वहाँ पर मृदु और सुस्वादु चार अंगुल प्रमाण तृप उत्पन्न होता है जिसे मृग रसायन के स्वाद की वाञ्छा से चरते हैं ॥२१ ।। वहाँ पर न गर्मी जन्य बाधा होती है, न कभी शीत जन्य, न वर्षा जन्य और न कभी ऋतुनों के परिवर्तन जन्य बाधा होती है। उन्हें रात्रि दिन में दुःख के कारण किञ्चित् भी प्रार नहीं होते ॥२१-२२।। अब भोगमूमिज जीवों की उत्पत्ति एवं वृद्धि प्रादि का वर्णन करते हैं :--
सद्यो जातार्यबालानां दिनसप्तासमुद्रसम् । भवेदुत्तानशय्यायामंगुल्याहार उत्तमः ॥२३॥ ततः सप्तदिनान्येषां धरिणोरङ्गरिङ्गिणाम् । दम्पतीनां मनोज्ञः स्यात्किञ्चिदवृद्धया देशान्तरः ।।२४।। सप्ताहेनापरेगते प्रोत्थाय कलभाषिणः । सञ्चरन्ति स्वयं भूमौ स्खलगति सहेलया ॥२५॥ पुनः स्थिरपदन्यासनजन्ति दिनसप्तकम् । सप्ताहं निर्विशंत्युच्चैः कलाज्ञानादिसद्गुणैः ॥२६॥ अन्यैः सप्तविनस्ते स्युः सम्पूर्णनवयौवनाः । दिव्यांशुक सुभूषाढयाः स्त्रीनरा भोगभागिनः ॥२७॥ स्थित्वातिनिर्मले गर्भे नवमासान् स्त्रियःशुभान् । एत्य दम्पतितामत्रोत्पद्यन्ते दानिनो नराः ॥२८॥ यदा दम्पति सम्भूतिस्तदा मृत्युः स्फुटं भवेत् ।
जनयित्रोस्ततोऽमोषां संकल्पो न सुतादिजः ।।२६।। अर्थः-तत्काल उत्पन्न हुए आर्य बालकों का सात दिन पर्यन्त शय्या पर सीधे सोते हुए अंगुली में स्थित उत्कट एवं उत्तम रस का प्राहार होता है ॥२३॥ इसके पश्चात सात दिन पर्यन्त पृथ्वी पर रेंगते हुए वे प्रति मनोज स्त्री पुरुष किञ्चित् बुद्धि के द्वारा अन्य दशा को प्राप्त होते हैं । अर्थात् कुछ