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सिद्धान्तसार दीपक
अत्रत्याः श्रावका दक्षाः प्रावकव्रतधर्मतः । षोडशस्वर्गपर्यन्तं गच्छन्ति श्राविकास्तथा ।।१६६॥ केचिभोगमहीं पानवानपुण्येन भद्रकाः । जिना स्तुतिभक्त्याचर्यान्ति चन्द्रास्पदं विवः ॥१७॥ नाकिनः कृतपुण्या येतेऽध स्वर्मोक्षसिद्धये । सत्कुलेषु प्रजायन्ते बहुश्रीभोगिनो बुधाः ।।१६८।। यत्रोत्पन्नः प्रयत्नेन साक्षान्मोक्षो हि साध्यते । रत्नत्रयतपोधोरैस्तत्र का वर्णना परा ॥१६॥ यथेषा वर्णना प्रोक्ता विदेहे द्विविधेऽखिला। तथा शेषविवेहेषु जेया द्वीपापरद्वये ॥१७०।। द्वीपेष्वर्ध ततीयेषत्कृष्टेन श्रोजिनेश्वराः । उत्पद्यन्ते पयचित्सर्वे सप्तत्य शतं परम् ॥१७१॥ तावन्तश्चक्रिरणश्चंव जायन्से नृसुचिताः । सप्तत्यग्रशतेष्वार्यखण्डेश्येककसंख्यकाः ॥१७२॥ जघन्येन जिनाधीशा भवन्ति विशति प्रमाः।
चक्राधिपाश्च सर्वत्र नृदेवखचराचिताः ॥१७३॥ मी:- विदेश क्षेत्ररथ देशों के सर्व नगरों एवं ग्रामों आदि में मणिमय और स्वर्णमय जिन चैत्यालयों की पंक्तियाँ हैं। वे जिन मन्दिर उन्नत और प्रकाशमान तोरणों से युक्त, रत्नमय सहस्रों जिन बिम्बों से भरे हुये और रत्नमय उपकरणों से परिपूर्ण हैं, वहाँ कहीं भी कुदेवालय नहीं हैं ।। १४७ १४८]। वहाँ पर मनुष्यों एवं देवगरणों से पूजित और बन्दित तथा प्रकाशमान् दीपि से यक्त जिनेन्द्र भगवान् की दिव्य मूर्तियाँ ही प्रचुर मात्रा में हैं, नीच देवों को मूर्तियां नहीं हैं ।। १४६।। वहाँ उत्पन्न होने वाले प्रवीगा पुरुष समस्त अभ्युदय सुख एवं अन्य समस्त सर्व अर्थ की सिद्धि के लिये नानाप्रकार को पूजन विधि से जिनेन्द्र भगवान को ही पूजते हैं ।।१५०॥ विवाह एवं जन्म आदि कार्यों में तथा अन्य समस्त मङ्गल कार्यों में एक परमेष्ठी अर्थात् अर्हन्त, सिद्ध प्रादि का ही पूजन होता है, क्षेत्रराल आदि का नहीं ॥१५१॥ समवसरण के प्राश्रित होने वाली बारह समानों से घिरे हुये जिनेन्द्र भगवान सज्जन पुरुषों को उपदेश देते हैं और विहार भी करते हैं ।।१५२१३ चार ज्ञान के धारो, महाऋद्वियों के अधी. श्वर तथा मुनिगणों से वेष्टित गणधरदेव मूक्ति मार्ग की प्रवृत्ति के लिये निरन्तर बिहार करते हैं। ॥१५३।। विदेह क्षेत्र में पञ्चाचार पर या तथा शिष्य प्रादि परिवार से वेष्टित महान प्राचार्य निरंतर