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सप्तमोऽधिकारः
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सीताया उत्तरे भागे समापुर्याश्च दक्षिणे।
भवत्युपसमुद्रोऽपिनश्वरः स्वोर्मिसंकुलः ।।२३०॥ अर्थी-चक्रवर्ती के देश में जो ग्राम एवं पुर आदि होते हैं उनका तथा उनके योग्य भोग्य सामग्री, सम्पदा एवं बल प्रादि का संक्षिप्त वर्णन करता हूँ ।।२१७।। चक्रवर्ती के शाश्वत बत्तीस हजार देश होते हैं, जिनके बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा क्रम से उन्हें नमस्कार करते हैं ॥२१८|| जो वृत्ति वाड़ से प्रावृत्त ( घिरे हुये) होते हैं. उन्हें ग्राम कहते हैं, ऐसे छयानवे करोड़ महा ग्राम; चार गोपुर एवं उन्नत कोट प्रादि से वेष्टित छब्बीस हजार पुर, जो पाँच सौ ग्रामों से संयुक्त होते हैं ऐसे चार हजार मडम्ब, ( प्रत्येक मडम्ब चार हजार ग्रामों से युक्त होता है ) नदियों और पर्वतों के मध्य रहना है लक्षण जिनका ऐसे उन्नत जिनालयों एवं धार्मिक जनों से भरे हुये सोलह हजार खेट होते हैं ॥२१७२२शा जी मात्र पर्वतों से घिरे हुये होते हैं उन्हें कर्वट कहते हैं । ऐसे मुनि और श्रावकों से युक्त चौबीस हजार कर्वट होते हैं ॥२२२।। धनी और धार्मिक जनों से युक्त तथा रत्न प्रादि उत्पत्ति के कारण भूत अड़तालीस हजार पत्तन हैं ॥२२३॥ सीता नदी के जल से उत्पन्न होने वाले उपसमुद्रों के तटों पर निन्यानवें हजार (२९०००) द्रोणमुख होते हैं ॥२२४।। रत्नप्रासादों एवं जिनालयों से सहित पर्वतों के शखरों पर चौदह हजार सबाह हैं जो अन्य शत्रों ग्रादिकों को प्रगम्य हैं तथा धनी और धार्मिक जनों से भरे हैं ऐसे अट्ठाईस हजार (२८०००) महादुर्ग हैं ।।२२५--२२६।। सीता के उत्तर तट पर उपसमुद्र के मध्य में रनों की राशियों से भरे हुये छप्पन ( ५.६ ) अन्तर्वीप हैं ॥२२७॥ महा उन्नत प्रासादों से परिपूर्ण और रत्नों एवं भूमि की अन्य सारभूत वस्तुओं से समृद्ध छब्बीस हजार { २६००० ) रत्नाकर हैं ।।२२८॥ रत्नों की स्थानभूत पृथिवी से समन्वित तथा रमणीक जिनभवनों और धार्मिक जनों से अंचित सात सौ रत्नकुक्षिवास हैं ॥२२६।। सीता के उत्तर भाग में और क्षेमापुरी के दक्षिण में अपने पाप में उठने वाली कल्लोलों सो संकुलित और अविनश्वर उपसमुद्र है ।।२३०॥
अब चक्रवर्ती के बल और रूप प्रादि के साथ-साथ अन्य वैभव के प्रमाण का वर्णन करते हैं :--
लक्षाश्चतुरशीतिः स्युजेन्द्राः पर्वतोपमाः । तावन्तश्चक्रिरणो रम्यारथावाजिद्वयाङ्किताः ॥२३१॥ शीघ्रगामिन एवास्याश्वा अष्टादशकोटयः । कोटघश्चतुरशीतिः स्यु तगामिपदातयः ॥२३२।। स्यादनास्थिमयं बनवलयैर्वेष्टितं वपुः । निभिन्नं वज्रनाराचैरमेधं तस्य सुन्दरम् ॥२३३॥