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सिद्धान्तसार दीपक
धर्म प्रशंसा :-- सद्धर्मः क्रियते मया प्रतिदिनं धर्म मजे यत्नतो,
धर्मेणव ममास्तु शाश्वतसखं धर्माय कुर्वे तपः । धर्मान्नापरमाश्रये सुगतये धर्मस्य सेये गुरगान ,
धर्मे चित्तमहं बधे भवभयं मे धर्म ! दूरोकुरु ॥२६१॥ ' इति श्री सिद्धान्तसारदीपकमहानन्यभट्टारक श्रीसकलकोति विरचिते देवकुरूत्तरकुरु कच्छादेश चक्रिदिग्विजय विभूति वर्णनोनाम सप्तमोऽधिकारः॥७॥
मर्थ:- मेरे द्वारा प्रतिदिन समीचीन धर्म का सेवन किया जाता है, मैं यत्न पूर्वक धर्म को धारण करता हूँ। धर्म के द्वारा ही मुझे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो, मैं धर्म के लिये तप करता हूँ। उत्तम गति के लिये धर्म से अपर अन्य कोई याश्य नहीं है । धर्म के गुणों को धारण करो। मैं अपने चित्त को धर्म में लगाता हूँ । हे धर्म ! मेरे भव भय को दूर करो ॥२६॥
इसप्रकार भट्टारक सकलकी तिविरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम महाग्रन्थ में देवकुरु, उत्तरकुरु, कच्छादेश चक्रवर्ती की दिम् विजय
एवं विभूति का वर्णन करने वाला सातवाँ अधिकार
।। समाप्त ।।