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मङ्गलाचरण:
अष्टमोऽधिकारः
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देहातिगान् जिनाधीशान् बन्धान् सुरोंश्च पाठकानू त्रिजगत्पतिभिः साधून् विदेहस्यान् नमाम्यहम् ॥ १॥
अर्थ :- तीन लोक के अधिपतियों द्वारा वन्दनीय देह रहित सिद्धों को, विदेह क्षेत्रों में स्थित अरहन्तों को चाय को, उपाध्याय परमेष्ठियों को और साधुयों को मैं सकलकीर्ति ( श्राचार्य ) नमस्कार करता हूँ || १॥
अब चित्रकूट नाम के प्रथम वक्षार पर्वत का वर्णन करते हैं
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अथ कच्छामहादेशात्पूर्वे वक्षारपर्वतः । प्रथमचित्रकूटाहपश्चतुः कूटविराजितः ॥ २॥ भवेदश्यमुखाकारस्तप्तचामीकरच्छविः । तोर सर्व नवेद्यार्थी जिन देवालये लः ||३|| नद्यन्ते योजनानां च शतपञ्चभिरुन्नतः । कुलाचलसमीपे योजनंश्चतुः शतप्रमैः ||४||
स्वोच्चतुर्थांश भूमध्यः कच्छादेशसमायतः । शतपञ्चप्रमाणंच योजने विस्तृतोऽभुतम् ॥५॥
अर्थ:: - कच्छा महादेश के पूर्व में चार कूटों से सुशोभित चित्रकूट नाम का प्रथम वक्षार पर्वत है. जो ग्रव के मुखसरा ग्राकार वाला, तपाये हुये स्वर्ण के सदृश कान्तिवान् और तोरणों, वनों, वेदियों और जिनालयों से समन्वित है ।। २३ ।। इस पर्वत की ऊंचाई सोता नदी के समीप पाँच सौ योजन श्रौर नील कुलाचल के समीप चार सौ योजन प्रमाण है। भूमध्य ( नींव ) में इसकी ऊँचाई का चतुर्थ भाग प्रमाण पृथिवी के भीतर है । पर्वत की लम्बाई कच्छा देश की लम्बाई के प्रमाण अर्थात् १६५६२ योजन और विस्तार पाँच सौ योजन प्रमाण है ॥४-५॥1