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अष्टमोऽधिकारः
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अर्थः- महावप्रा देश के पूर्व में देवों से संयुक्त सुर नामक वक्षार पर्वत है। उसके शिखर पर जिनचैत्यालय और देव प्रासादों से युक्त सिद्धकूट महाबप्रा वप्रकावती और सुर नाम वाले चार कूट अवस्थित हैं ।। १२२-१२३॥ सूर वक्षार के पूर्व में वप्रकावती नाम का श्रेष्ठ देश है, जहाँ पर धर्म और मोक्षणात प्रवर्तते है । उस देश के मध्य में धर्म और सुख की खान स्वरूप श्रपराजित नाम की नगरी है; जो कर्म शत्रुओं को जीतने में उद्यत भव्य जीवों से और विद्वज्जनों से प्रत्यन्त शोभायमान रहता है ।। १२४ - १२५। उस देश के प्रागे शाश्वत बहनेवाली केनमालिनी नाम की विभङ्गा नदी है, जिसक दोनों तट रत्नों के तोरणों, उत्तम वेदियों और वनों से अञ्चित हैं ।। १२६ ।। विभङ्गा नदी के आगे धर्म और सुख के ग्राकर स्वरूप एक ग्रार्य खण्ड से विभूषित श्रीर पाँच म्लेच्छ खण्डों से युक्त गन्ध नाम का शाश्त्रत दश है। जिसके मध्य में जिन चैत्यालयों, शाल, गोपुर एवं प्रासादों और चक्रवर्ती आदि महापुरुषों से विभूषित चक्र नाम की नगरी है ।। १२७- १२८ || गन्ध देश के पूर्व में शिखर पर प्रति है जिन त्यालय और देवों के श्रालय जिनके ऐसे चार बूढों से संयुक्त नागा (धिप) नाम का बक्षार पर्वत है । जिसके मस्तक पर सिद्धकूट, गन्धकूट, सुगन्धकूट और नागकूट नाम के चार महान कूट स्फुरायमान होते हैं ।। १२६ - १३० ।। नाग वक्षार के पूर्व में जिन चैत्यालयों, नगरों, ग्रामों और उद्यानों से सहित सुगन्ध नाम का महा उत्तम देश है। उसके मध्य में खड्मापुरी नगरी है, जो रत्नों के जिनालयों से, पुण्यवान् पुरुषों, बुद्धिमानों और धार्मिक महोत्सवों में तल्लीन ऐसे धन्य भव्यजनों से सदा शोभायमान रहती है ।। १३१ - १३२ ।। सुगन्ध देश के श्रागे ऊर्मि नाम की विशाल विभङ्गा नदी है, जो दक्षिण-उत्तर लम्बी और पूर्व-पश्चिम चौड़ी है ॥ १३३॥ उसके बाद जैनधर्म जन्य उत्तम नाचरणों, जैन बन्धुयों एवं धर्मात्मानों से परिपूर्ण गन्धिला नाम का देश है। उसके मध्य में धर्म श्रीर धर्मात्माओं की खान के सदृश अयोध्या नाम की नगरी है, जो पण्डित जनों, जिन चैत्यालयों एवं कर्मों पर विजय प्राप्त करने में प्रयत्नशील भव्यजनों से सदा सुशोभित रहती है ।।१३४- १३५||
अब भद्रशाल की वेदी पर्यन्त देशों, वक्षारों एवं विभंगा नदियों का प्रवस्थान कहते हैं :
ततो देवाद्रिनामास्ति वक्षार ऊजिलोऽव्ययः । प्रथमं सिद्धाख्यं द्वितीयं गन्धिलाह्वयम् ॥१३६॥ कूटं च गन्धमालिन्यारूयं बेवकूटमन्तिमम् । मणिकूटरमीभिः सोऽलंकृतः शिखरे बरे ||१३७॥ तत्पाइ विषयो गन्धमालिनीसंज्ञकोऽद्भुतः । द्विनदी विजयार्धश्च षट्खण्डीकृत उत्तमः ॥१३८॥