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सिद्धान्तसार दीपक वन वेदी आदि से वेष्टित है ।।५८॥ इस विभङ्गा के पश्चिम में कल्याण की खान सदश महान् महावत्सा नाम का देश है, जो ग्राम पत्तन और खेटों आदि से युक्त और जिनेन्द्र भवनों से सम्पन्न है। उसके मध्य में नाभि सदृश अपराजिता नाम की नगरी है, जो जितेन्द्रियों, जिन साधनों और जिन कल्याणक महोत्सवों से विभूषित रहती है ॥५६-६०|| महावत्सा देश के पश्चिम में कच्चन सदृश वैश्रवण नाम का वक्षार पर्वत है, जिसका शिखर सिद्धकूट, महावत्सा वूट, वत्सकावती क्ट और वैश्रवण कूट जो कि जिन चैत्यालयों और व्यन्तर देवों के प्रासादों से मण्डित है ।।६१-६२॥ पूर्व विदेह क्षेत्र के अवशेष देशों, पर्वतों एवं विभंगा नदियों को अवस्थिति कहते हैं :
ततः परं भवेद्वत्सकावतीविषयोऽद्भुतः। षट्खण्डादिनदीयुक्तः स्वक्तिसुखसाधनः ॥६३।। तन्मध्ये महतो निस्था प्रभंकरा पुरी भवेत् । जिनेन्द्रजनसंघाश्चत्यागारभृतापरः ॥६४।। ततो मत्तजलासंज्ञा विभङ्गा सरिवृत्तमा । सोतामध्ये प्रविष्टा च कुण्डद्वारेण निर्गता ॥६५।। तस्या अपरभागेऽस्ति रम्याल्यो विषयः शुभः । रम्यो रम्यैजिनागारधर्मकर्ममहोत्सवः ।।६६॥ अंकाख्या नगरी रम्या तवार्य खण्डमध्यगा । भातिधर्मखनीयोच्चधमिधर्मप्रवर्तनः ॥६७॥ ततोऽञ्जनगिरिर्नाम्ना वक्षारस्तुङ्गविग्रहः । हेमवर्णश्चतुः फूट चैत्यवेघालयान्वितः ॥६॥ सिद्धकूटं च रम्याख्यं कूट सुरम्यनामकम् । अञ्जनाह्वयमेतैः सकूटरग्रेऽप्यलंकृतः ।।६६॥ ततः सुरम्य देशोऽस्ति रमणीयः शुभावहः । चैत्यागारसुसङ्काढ मिखेटपुरादिभिः ।।७०॥ पुरी पद्मावतीनाम्नी सदार्यखण्ड भूस्थिता । श्रीमदिर्धाभिकर्भग्याति पद्मव शाश्वता ॥७१॥ ततो नदोविभङ्गास्ति परोन्मत्तजलाभिषा । जिनेन्द्रप्रतिमायुक्त बैदिका तोरणयंता ॥७२॥